भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू और मैं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
Kavita Kosh से
इस विचित्र संसार-चित्र का तू ही चतुर-चितेरा है।
तू सब में है, सब तुझ में है, जो कुछ सब तेरा है।।
विविध खिलौने रच कर तूने अलग-अलग आकार दिया।
भाँति-भाँति के रंग चढ़ा कर प्राणों का उपहार दिया।।
कठपुतली यह दुनिया सारी, सूत्रधार अलबेला तू।
डोर पकड़ कर नचा रहा है सबको आप अकेला तू।।
कभी हँसता, कभी रूलाता, नित नव खेल खिलाता है।
राव रंक से, रंक राव से चाहे जिसे बनाता है।।
तू चाहे तो काम असंभव भी है संभव हो जाता।
तेरी चाहत बिना न कोई पत्ता तक भी हिल पाता।।
मैं भी तेरे रंगमंच का छोटा-सा अभिनेता हूँ।
मिलता जो निर्देश मुझे, बस काम वही कर लेता हूँ।।
दृष्टि दया की रखना मुझ पर भटक न मैं पथ से जाऊँ।
जो तेरा आदेश मिले, वह अभिनय पूरा कर पाऊँ।।