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तू चल मेरे साथ रे! / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

तू चल मेरे साथ रे!
कला आजकी बिकती जाती
हृदयहीन के हाथ रे!
युग चलता है अपने पथ पर
तू उठ, चल अपने पग-रथ पर
यह तो पहुँच चुका है ‘इति’ पर
पर, तू तो है इसके ‘अथ’ पर
चलते चलते रात कटेगी
होगा उज्ज्वल प्रात रे!
चलने की जो चाह बनी
तो फिर लाखों राह बनी है
मंजिल तक जाने को आकुल
दुनिया लापरवाह बनी है
एक एक कर युग बीतेगा
दिन की कौन विसात रे!
तू चल मेरे साथ रे!
जीवन क्या? चिनगारी है यह,
जलने का अधिकारी है यह,
सुलझाकर उलझनें सभी,
जय पाने की तैयारी है यह
आततायियों पर होने
वाला है वज्र निपात रे!
तू चल मेरे साथ रे!
साहस औ’ विश्वास मिला है
मन में अतुल प्रकाश खिला है
पूरब से लेकर पच्छिम तक
धरा हिली, आकाश हिला है
दुख के घन फटने वाले हैं
बीत चली बरसात रे!
तू चल मेरे साथ रे!