तू जब दोबारा आया था / नासिर काज़मी
तू जब दोबारा आया था
मैं तिरा रस्ता देख रहा था
फिर वही घर, वही शाम का तारा
फिर वही रात, वही सपना था
तुझको लम्बी तान के सोते
मैं पहरों तकता रहता था
एक अनोखे वहम का झोंका
तेरी नींद उड़ा देता था
तेरी एक सदा सुनते ही
मैं घबरा कर जाग उठता था
जब तक तुझको नींद न आती
मैं तिरे पास खड़ा रहता था
नई अनोखी बात सुनाकर
मैं तेरा जी बहलाता था
यूँ गुज़रा वो एक महीना
जैसे एक ही पल गुज़रा था
सुब्ह की चाय से पहले उस दिन
तूने रख्ते-सफ़र बांधा था
आंख खुली तो तुझे न पाकर
मैं कितना बैचैन हुआ था
अब न वो घर, न वो शाम का तारा
अब न वो रात, न वो सपना था
आज वो सीढ़ी सांप बनी थी
कल जहां ख़ुशबू का फेरा था
मुरझाये फूलों का गजरा
खाली खूंटी पर लटका था
पिछली रात की तेज़ हवा में
कोरा काग़ज़ बोल रहा था।