तू नहीं गरजो धरा पर तू नहीं बरसो / जनार्दन राय
आज नभ के नील बादल तू नहीं बरसो।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
भाव उर के बाँध को
हैं तोड़कर रोते।
मिलन-पथ दुर्गम
समझकर मित्र हैं रोते।
कर दया तुम लौट जाओ,
यह सुयश ले लो।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
गल रही आशा-लतायें,
रो रहा दिल है।
जल रही उर की तमन्ना,
जल रहा दिल है।
तू दिखा सम्वेदना,
वापस चले जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
है बहुत चिन्तित पथिक
है बीच में अटका।
तुम अगर निष्ठुर बने,
रह जायेगा भटका।
दे दया का दान बादल
तुम चले जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
जोहता होगा मिलन के,
बाट को मितवा।
रो रहा होगा न लखकर
आगमन मितवा।
योग दे दो तुम मिलन में
गगन से जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
देखकर तुमको बरसते
लोग खुश होंगे।
जो खुशी की नींद पाकर
सो रहे होंगे।
दे दिखा थोड़ी दया
मुझ पर चले जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
कवि कालिदास ने था
काम कठिन लिया।
दूत तुमको बनाकर
संदेश भिजवाया।
मात्र विनती सुन हमारी-
लुप्त हो जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
शाप से तापित बना था
यक्ष कवि-गुरु का।
पत्र है मुरझा रहा,
मेरे मिलन-तरु का।
नीर से भीगे विटप को
धूप दे जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
राग बजने दे मिलन के
मित्र घर जाकर।
गीत गाने दे खुशी के
सुहृद घर जाकर।
मित्र-मित्राणी मिलन का
योग दे जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
नमन है शतवार बादल
पूर्ण कर दे आश।
है विनय सौ बार बादल
दो मुझे उल्लास।
मिलन के सुन्दर सुरस में
विष न दे जाओ।
तू नहीं गरजो धरा पर
तू नहीं बरसो।
-एकमा,
20.9.1964 ई.