तू न जिया, न मरा / प्रेम शर्मा
तू न जिया
न मरा,
ज्यों काँटे
पर मछली
प्राणों में
दर्द पिरा !
सहजन की
डाल कटी,
ताल पर
जमी काई,
कथा अब
नहीं कहता
मन्दिर वाला
साईं
दुःख में
सब एक वचन
कोई नहीं दूसरा !
औषधि
जल
तुलसीदल
सिरहाने
बिगलाया,
ईंधन कर दी
अपनी उत्फल काया,
धरती पर
देह-धरम
आजीवन हुक-भरा !
माथे पर
गंगाराज
हाथों में
इकतारा,
बोला
चलती बिरियाँ
जनमजला
बनजारा,
वैष्णव जन
ही जाने
वैष्णव जन
का दुखड़ा !
(धर्मयुग 15 फ़रवरी 1970)