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तृतीय अध्याय / रंजना वर्मा

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कहा सूत ने फिर कहता हूँ। विष्णु भक्ति का पथ गहता हूँ।।
उल्कामुख था राजा कोई। बुद्धिमान ज्ञानी विष्नोई।।
प्रतिदिन था वह मन्दिर जाता। दान दिया करता मनभाता।।
विप्र-हितू था राजा दानी। परम सती थी उस की रानी।।
एक दिवस वह नदी किनारे। व्रत के सारे साज संवारे।।
सत्यनारायण पूजन करती। मन से प्रभु का नाम सुमिरती।।
साधु नाम का बनिया आया। नावों का बेड़ा रुकवाया।।
उतर नदी तीरे जब आया। नृप को व्रत पूजन रत पाया।।
नमन किया फिर पूछा सादर। राजन क्या करते हैं चित धर।।
जो करते हैं हमें बतायें। मन की चिंता आज मिटायें।।
बोले नृप अद्भुत तेजस्वी। नारायण व्रत परम यशस्वी।।
मनवांछित फल देने वाला। कष्ट निवारण करने वाला।।
बोला वणिक विधान बतायें। मेरा भी सन्ताप मिटायें।।
हूँ सन्तानहीन मैं राजन । विष्णु करेंगे कष्ट निवारण।।
विधि समझी व्यापार बढ़ाया। आनन्दित हो कर घर आया।।
पत्नी से फिर बोला हँस कर। है सन्तति दायक व्रत सुंदर।।
जब सन्तान गेह में आये। हम भी व्रत पूजन करवायें।।
लीलावती सती थी नारी। हुआ उसे सुन कर सुख भारी।।
था गृहस्थ का धर्म निभाया। विष्णु कृपा से गर्भ जनाया।।
दसवें मास सुता थी जायी। शशि सम बढ़ी परम सुखदायी।।
चन्द्रकला सी बढ़ती जाती। कलावती थी वह कहलाती।।
लीलावती एक दिन बोली । पति के श्रवणों में रस घोली।।
था संकल्प किया जिस व्रत का। किया न क्यों आयोजन उसका।।
कहा साधू ने मत घबराओ। पुत्री के प्रति प्रेम निभाओ।।
जब विवाह कन्या का होगा। तब व्रत का आयोजन होगा।।
कह कर साधू नगर को आये। कन्या दिन दिन बढ़ती जाये।।
सखियों के संग देखी कन्या। युवा हो गयी जैसे वन्या।।
दूतों को सब कुछ समझाया। सुन्दर वर की खोज कराया।।
कांचन नगरी दूत गये जब। देखा सुंदर एक युवा तब।।
कन्या योग्य समझ कर लाये। बनिये को उस के गुण भाये।।
बन्धु बांधवों को बुलवाया। निज कन्या का ब्याह रचाया।।
पर अपराध हुआ यह भारी। प्रभु पूजन की बात बिसारी।।
रुष्ट हो गये सत्य नारायण। वैश्य रहा व्यवसाय परायण।।
रत्नसार पुर सागर के तट। बेड़ा था लगवाया झटपट।।
जामाता को साथ लिये था। धन अर्जन में चित्त दिए था।।
चन्द्रकेतु नृप की वह नगरी। सुषमा जहाँ अनोखी बिखरी।।
भूल गया था साधु प्रतिज्ञा। क्रोधित विष्णु दे रहे शिक्षा।।
शाप दिया तब प्रभु ने भारी। दारुण दुख पावें परिवारी।।
एक दिवस आये दो तस्कर। भाग रहे नृप का धन ले कर।।
सोता जब बनिये को पाया। सारा धन था वहीं छिपाया।।
तत्क्षण दोनों हुए अलक्षित। नृप सैनिक से हुए सुरक्षित।।
पकड़ सैनिकों ने बनिये को। उठा लिया था सारे धन को।।
हर्षित जा राजा से बोले। दो तस्कर बन्धन में डोले।।
दण्ड इन्हें अब आप सुनायें। ये जिन कर्मों का फल पायें।।
राजा ने सब अन धन छीने। बात न उन की सुनी किसी ने।।
हा हाथ पांव बेड़ी डलवाया। कारागार उन्हें भिजवाया।।
उधर देश मे पुत्री पत्नी।रो रो काट रहीं दिन रजनी।।
शाप मिला अब क्या हो आगे। धन सारा तस्कर ले भागे।।
चिंता रोग सताने आये। भूख प्यास ने प्राण सुखाये।।
मिलता नहीं पेट भर खाना। आँसू पी कर दिवस बिताना।।
दाने दाने तरस रही थी। गली गली में भटक रही थी।।
कलावती भी भटका करती। आँखे उस की निशि दिन झरती।।
व्याकुल हुई भूख की मारी। दिखी भीड़ ब्राह्मण घर भारी।।
सत्यनारायण पूजन होता। पूजा देख हृदय था रोता।।
प्रभु को मन मे बहुत मनाया। चरणामृत प्रसाद ले खाया।।
रात गये जब लौटी घर को। तब देखा माता के डर को।।
पूछा पुत्रि, कहाँ से आयी। किस के घर है रात बितायी।।
जो है मन में मुझे बताओ। कहा सुता ने मत घबराओ।।
द्विज के घर देखा व्रत सुन्दर। मनवांछित प्रभु देते हैं वर।।
इस व्रत से सब कष्ट मिटेंगे। दुख के बादल सभी छंटेंगे।।
भूली बात याद तब आयी। पुत्री को सब कथा सुनायी।।
पूजित हुए सत्यनारायण। व्रत पूजन पाया पारायण।।
हाथ जोड़ कर बोली माता। घर आवैं प्रभु पति जामाता।।
हैं अपराधी मेरे स्वामी। लेकिन हो तुम अंतर्यामी।।
सब अपराध क्षमा हों मेरे। हे हरि चरण शरण हूँ तेरे।।
दीन वचन प्रभु के मन भाये। चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाये।।
राजन जब जागो प्रातः को। मुक्त करो इन वणिक सुतों को।।
जो भी धन है उनसे पाया। उन्हें सौंप देना मनभाया।।
तुम्हें अन्यथा नष्ट करूँगा। पुत्र राज्य से भ्रष्ट करूँगा।।
कह प्रभु अंतर्ध्यान हो गये। स्वप्न देख नृप पुनः सो गये।।
प्रात हुए जब निद्रा टूटी। याद आ गयी हरि की बूटी।।
बैठ सभा मे स्वप्न सुनाया। वणिक सुतों को मुक्त कराया।।
नृप समीप जब उन को लाये। सम्मानित कर कष्ट मिटाये।।
चन्द्रकेतु राजा ने हँस कर। कहा नियति वश आये फँस कर।।
अब तुम मन के सब भय त्यागो। जो चाहो मनचाहा माँगो।।
वस्त्राभूषण स्वयं मंगाया। अपने हाथों उन्हें सजाया।।
धन दे उन को तुष्ट कर दिया। वचनों से सन्तुष्ट कर दिया।।
छीना था उन का जो भी धन। उस का दुगुना किया समर्पण।।
कहा प्रेम से अब घर जाओ। सुख सुविधायें जी भर पाओ।।
उपकृत नृप के चरण गिर पड़े। दोनों घर के लिये चल पड़े।।

।। श्री सत्यनारायण कथा का तीसरा अध्याय समाप्त।।