तृतीय सर्ग (संगठन) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'
मानव ने मानव के भीतर का छुआ तार
खुल गया हृदय के लिए हृदय का बंद द्वार
मावल-प्रदेश दुर्भाग्य-ग्रस्त था सारा
पूना लगता था बुझा-बुझा बेचारा
वर्षों तक पीड़ित किया युद्ध-दानव ने
मानव का शोणित पिया क्रूर मानव ने
हिंसा लिप्सा की लौ को उकसाती थी
मिट्टी स्वदेश की रोती-चिल्लाती थी
काया स्वदेश की विक्षत व्रण-विह्वल थी
आत्मा स्वदेश की व्याकुल और विकल थी
आँखों में जल, प्राणों में घोर निराशा
थी बोल रही अनबोल पीर की भाषा
लगता था पृथ्वी अब डोले, तब डोले
लगता था फूटेंगे विनाश के शोले
पथ में तम की छाया सर्वत्र खड़ी थी
कुछ और जाँच बाकी थी, कठिन घड़ी थी
दुर्भिक्ष और दुष्काल नियति ने भेजा
यह देख धैर्य का भी हिल गया करेजा
जिस ओर दृष्टि जाती सूखा मिलता था
तिल-तिल कण-कण तरु-तरु भूखा मिलता था
सूखे तड़ाग, सूखी सरिता छविवाली
मिलती न कहीं थी दर्शन को हरियाली
संतप्त धरा का नवीकरण हो कैसे
था प्रश्न निराशा-तिमिर-हरण हो कैसे
ऐसी ही घड़ियों में बनकर आलोक-पुंज
जन-नायक कर विछिन्न तिमिर-पट कढ़ता है
तूफान सरीखा जन-मन-मानस को हलोर
विघ्नों को देता हुआ चुनौती बढ़ता है
नीतिज्ञ चमकता है ऐसी ही घड़ियों में
मतिसुप्रयोगता, मेधा का परिचय देता
पतवार और असि हाथों में लेकर दोनों
नौका स्वदेश की आँधी अंधड़ में खेता
सव्याज राजनीतिज्ञ चाहता फल तुरंत
निर्व्याज देखता है भविष्य को धीरज से
पहलादेता उसको महत्त्व जो सम्मुख है
दूसरा सिद्धि का नियम बनाकर चलता है
धुन का पक्का, सच्चा है और लगन का जो
वह अपनी चिंता को रख देता अलग हटा
जन-जन के हित की बात सोचता रात-दिवस
योजना बनाकर उसे क्रियान्वित करता है
गत को पुकारता अनुभव का बल देने को
उद्बोधित करता है भविष्य को सुलग-सुलग
वह नहीं मानता है कि नियति ही सब कुछ है
विश्वास अटल वह आत्म-शक्ति में रखता है
कर्त्तव्य लुभाता उसे धर्म उसको प्यारा
वह पौरुष की रण-भेरी के स्वर पर तिरता
अनवरत युद्ध करता प्रतिरोधी तत्त्वों से
वह वर्त्तमान को उलट नया युग लाता है
मन में कर बारंबार तर्क
बहुविध विचार
जन समझ लिया परिणामों को
प्रतिकूल और अनुकूल मिला
जो कुछ भी सबको तोल लिया
जब प्रश्न या कि संशय न एक भी रहा शेष
तब संबोधित कर दादोजी को
कहा शिवा ने आदर से
”पढ़ता मैं लिखा हुआ है जो
तरु-तरु की सूखी डारों पर
पढ़ता हूँ मैं जो लिखा हुआ है
घर-घर की दीवारों पर
पढ़ता हूँ मैं दुर्दान्त समय को
परंपरा को पढ़ता हूँ
रोदन-क्रंदन से भरे गगन को
और धरा को पढ़ता हूँ
मिट्टी स्वदेश की पूज्य
इसी मिट्टी को लेकर जीना है
मिट्टी का लाल सुहाग रक्त
भूषण-आभरण पसीना है
युग चाह रहा है हल-कुदाल
मिट्टी चाहे उत्कर्ष नया
युग चाह रहा है शस्त्र और
मिट्टी चाहे आदर्श नया
युग चाह रहा है नई पौध
मिट्टी चाहे उन्मेष नया
युग चाह रहा है नव-विधान
मिट्टी चाहे रण-वेश नया
युग चाह रहा है नया दौर
मिट्टी चाहे इतिहास नया
युग चाह रहा है नई आग
मिट्टी चाहे विश्वास नया
युग चाह रहा है नई दिशा
मिट्टी चाहे संधान नया
युग चाह रहा है नई हौस
मिट्टी चाहे बलिदान नया
शाहजी सुविज्ञ ने
जिसके मार्ग-दर्शन में
छोड़ा था शिवाजी को
वह न मात्र आंकिक था
केवल लिपिक था वह
यह भी न सत्य है
आत्म-हित-वादी था
कपटी, प्रवंचक था
मितमति था, कुटिल था
ठीक नहीं कहना
दादोजी कोंणदेव
परम चरित्रवान थे
कार्यक्षम, कर्मशील
दृढ़ निश्चय, मेधावी
वीक्षक घटनाओं के
समीक्षक स्थितियों के
भावों में ऋजुता थी
मन उदार उनका था
उन्नत विचार नीति-
नियम समुन्नत थे
केश थे सुफैद हुए
अनुभव की धूप में
वृद्ध था शरीर किंतु
रुधिर था उबलता
नस-नस में राष्ट्र-प्रेम
दौड़ता अबाध था
रग-रग में जोश था
उमंग की तरंग थी
असि-पथ के राही
शिवा हैं यह जान कर
मोड़ लिया भक्तिपूर्ण
मन से पथ अपना
मिट्टी को हल दिया
हाल दिया, हलधर भी
स्नेह दिया, श्रम दिया
श्रमी और सीकर भी
वापी-कूप गाँव-गाँव
जीवन लगे बाँटने
गाँव-गाँव उपवन
उद्यान लगे सजने
बंजर को प्राण मिले
नव-नवीन दीप्तियाँ
ऊसर शाप-मुक्त हुआ
मुग्ध लगा हँसने
परती को कृष्ण्कृत धरती
प्रसन्न हुई
शोभित हुई दुलहन-सी
खेतों की क्यारियाँ
शस्य की शिखाओं से
जीवन-सुख प्राप्त हुआ
जन-मन को बल मिला
शासन प्रशस्य से
फूल लगे कण-कण में
सौरभ उड़ेलने
पत्र लगे झरनों के
गीत पर थिरकने
फलित रसाल हुए
और शुकवल्लभ भी
दल-के-दल उमड़ पड़े
भौंरे, तितलियाँ
झंकृत हुआ केशराम्ल
फूटी आग नीबू से
नये-नये राग लगा
खग-कुल भी छेड़ने
पूना और सूपा और
मावल-प्रदेश, सभी
भाग्य से, विभूति से
ऋद्धि से विभूषित हुए
स्फुरित हुआ आत्म-विश्वास
स्वावलंबन भी
विनत कोटि-कोटि शीश
सामने भवानी के
मन में दृढ़ता, चिंतन भविष्य का, समुत्साह
शिवराज ढूँढ़ते फिरते थे पथ और राह
जितने पर्वत, उत्तंग शृंग, जितने कगार
जितने निर्झर, जितनी नदियाँ, जितने कछार
जितने टीले, जितने ढूहें, जितने पठार
जितने वन-उपवन, अधित्यकाएँ दुर्निवार
सब के समीप जा वे विलोकते बार-बार
सब को पुकारते, सुनते भी सबकी पुकार
वे चाह रहे थे यह कि मुक्ति-सेना दुर्दम
सब ओर बढ़े, अनुभव से हो कर पंथ सुगम
जिस ओर बढ़ाते चरण स्नेह मिलता अपार
तरु-पल्लव स्वागत में देते शत कर पसार
वे बढ़ते तो घासें लेती थीं चूम पाँव
हर हृदय बन गया सुस्ताने का निभृत ठाँव
कुश-कंटक देते राह छोड़, झुकते बबूल
आगे क्या है इंगित से कहती कली, फूल
पर्वत का मौन उन्हें लगता कर्त्तव्य-घोष
साँसों से चुनते क्रुद्ध पवन का असंतोष
दृग में भरते प्रातः संध्या की ज्वलित आग
प्रश्वास, श्वास में शिखर-शिखर का उष्ण राग
ममता मिलती तो वे लपेटते स्निग्ध प्राण
क्षमता मिलती तो खंग चमकते सप्रमाण
आँसू मिलते तो वे उड़ेल देते सनेह
पीड़ा मिलती तो बन जाते स्वयं नेह
मानव ने मानव के भीतर का छुआ तार
खुल गया हृदय के लिये हृदय का बंद द्वार
जिस क्षण मानवता-मूर्ति हुई मंदिरासीन
शत-शत उर बजने लगे कि जैसे एक बीन
झंकारों में रोमांचित शत-शत सिंधु-लहर
प्रत्येक लहर में युवा का गुंजित स्वर
प्रत्येक लहर में एक प्रतिज्ञा, बंध एक
प्रत्येक लहर संकल्प एक, सौगंध एक
बाजी पासलकर, मालसुरे सहचर सुधीर
बाजी जेघे, येशाजी, गोमाजी प्रवीर
थे इसी जागरण के प्रतिमान पराग-भरे
उत्सर्ग-दीप के विस्फुलिंग अनुराग-भरे