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तृतीय सर्ग / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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चल पड़ा भयंकर राम बाण,
भीषण दावाग्नि उगलता-सा।
अपने प्रचण्ड घन-गर्जन से,
सारा संसार निगलता-सा॥

शतकोटि शम्भु के अट्टहास
की तरह बाण हुंकार चला।
मानो रोषाकुल शेषनाग ही
आज प्रखर फुंकार चला॥

भैरव रव-पूरित विश्व हुआ,
निस्तेज हुए रवि-शशि-उडुगण।
काँपा सहसा ब्रह्माण्ड-वलय,
काँपा अम्बर, काँपा कण-कण॥

काँपे छाया-पथ, गिरि-गहवर;
ग्रहगण की गति निस्पंद हुई।
क्षण एक लगा ऐसे जैसे
संसृति की हृत्गति बन्द हुई॥

चल पड़े सभय उनचास पवन,
हरहर हरहर-हरहर हरहर।
थी काँप रही पृथ्वी प्रतिपल,
थरथर थरथर-थरथर थरथर॥

हो विकल सकल दिक्पाल भगे,
दिग्गज सहसा चिग्घाड़ उठे।
हो गया बधिर रव-गुण अम्बर,
शम्बर-से सिंह दहाड़ उठे॥

फट पड़े प्रलय प्रावृट पड़पड़,
कड़कड़ विद्युत ध्वनि घोर हुई।
बहुरंगी अग्नि-लपट प्रकटी,
हलचल खलबल चहुँऔर हुई॥

भय-कंपित यक्ष-पिसाच हुए,
राक्षस। गंधर्व, दनुज, दानव।
थे काँप रहे सुरगण किन्नर,
भय विह्वल थे सारे मानव॥

त्रैलोक प्रकम्पित था भय से,
भय-पूरित था ब्रह्माण्ड निलय।
ऐसा भीषण विस्फोट हुआ,
मानो मडराया खण्ड प्रलय॥

परमाणु-संतुलन भंग हुआ,
चिर प्रकृति पुरुष से भिन्न हुई।
त्रयगुण में साम्य प्रविष्ट हुआ,
प्रक्रिया सर्जन की छिन्न हुई॥

सुर-असुर सभी थे सोच रहे
यह क्या है, क्या है, ज्ञात नहीं।
यह शंकर का तीसरा नयन,
या प्रलय-निशा है प्रात नहीं॥

यह राम बाण ही हाय अथवा
द्वादश आदित्य-प्रभा-मण्डल।
अथवा बहु ज्वालामुखी धधकते
तोड़ धरा कि पर्त निबल॥

होता निपात उल्काओं का,
या धूमकेतु मडराया है।
अथवा उद्वेलित महासिंधु,
बड़वानल से बढ़ आया है॥
यह प्रलय-चाप का अग्नि-विशिख,
या स्वयं काल घहराता है।
अथवा समीप है नाश, उसी का,
पवन रहस्य बताता है॥

अथवा समुद्र-मंथन में फिर से
प्रकट हुआ है हालाहल।
जिससे संसृति है दग्ध्मान,
अग-जग में भीषण कोलाहल॥

अथवा विराट विग्रह उरुक्रम,
उरुगाय विष्णु का बाण चला।
जिससे पृथ्वी द्युलोक और,
यह अन्तरिक्ष जा रहा जला॥

कौआ भय-विह्वल भाग चला,
उसके पीछे था बाण प्रखर॥
सन-सन सन-सन गतिमान सतत,
ध्वनि निःसृत थी घर घर, घर घर॥

ताम्राक्ष अलौकिक काक उड़ा,
पहले बिल्कुल नीचे-नीचे।
फिर सहसा उड़ने लगा पलटकर,
तेजी से ऊँचे-ऊँचे॥

फिर तीव्र वेग से महाडीन,
अतिडीन, सुडीन उड़ानों को।
क्रमशः भरते वह भाग चला,
लज्जित करते तूफानों को॥

ऊपर ऊपर केवल ऊपर
निज पर पसार घबडाया-सा।
हाँफता हुआ उड़ता ही गया,
भय पाया-सा, भरमाया-सा॥
वह भूर्भुवः स्वः तपः जनः
मह सत्यलोक-स्वर्लोक गया।
फिर अटल, वितल, पटल लोक,
में भी बेरोक सशोक गया॥

यों अधः-उर्ध्व चौदहों भुवन में,
रहा घूमता अकुलाया।
पर, जहाँ खों भी गया,
पास में कालानल जलते पाया॥

वह उड़ने में था परम कुशल,
था दूर श्रवण, मनसागामी।
प्रिय दर्शन, तरुण, मनोहर था,
था कामरूप, अतिशय कामी॥

लेकिन उसकी दक्षता कला-
बाजियाँ विफल विपरीत हुईं।
अप्रतिहत बढ़ते राम-बाण की
उस पर प्रतिक्षण जीत हुई॥

आखिर अपनी सामर्थ्य भूल,
उसने सुरपुर प्रस्थान किया।
'है बड़ा कठिन जीवन बचना' ,
उसने मन-ही-मन मान लिया॥

वह तुरत त्याग वायस तन को,
देवेन्द्र लोक में जा धमका।
विभ्रांत विकल सुत को विलोक,
कर सुरपति का माथा ठनका॥

यम, अग्नि। बृहस्पति, वरुण,
अरुण के मुख मलीन, श्री-हीन हुए।
मघवा-सुख के सारे कपोत,
उनके कर से उड्डीन हुए॥
देखा देवेश्वर ने जयन्त का
मुख विवरण-सा, सूखा-सा।
अति थका-थका बेचैन, डरा-सा,
प्यासा-सा अति भूखा-सा॥

कल केशराशि बिखरी-बिखरी,
तन स्वेद-सिन्धु में डूबा—सा।
था अस्त-व्यस्त वर वस्त्र,
पुत्र उनका बन गया अजूबा-सा॥

बोले-" क्या बात हुई? प्रिय सुत्त!
क्यों वेपथुमान शरीर सुघर?
क्यों देख रहे आगे-पीछे,
दायें-बायें, नीचे-ऊपर?

धौंकनी सदृश चलती छाती,
साँसे भी नहीं समाती हैं।
मुख वाक्-शून्य, आँखें अनुपम
बाहर निकली-सी आती हैं॥

ओठों पर पपड़ी जमी हुई,
वदनाब्ज अधिक मुरझाया है।
क्या मेघनाद राक्षसी सैन्य के
साथ पुनः चढ़ आया है?

क्यों देख रहे तुम हमें भ्रमें-से,
भूले-से, अनजाने-से।
यों बार-बार क्यों चौंक रहे
अपनी साँसों के आने से॥

पर, जब तक कहता कुछ जयन्त,
तब तक शर पहुँचा लहराता।
जाज्वल्यमान चिति-चक्र सदृश,
सुरपति के सम्मुख घहराता॥
वे समझ गए श्री रामचन्द्र का,
इसने क्या अपराध किया।
अब बच न सकेगा किसी भांति,
अपना जीवन बर्बाद किया॥

यह राम-बाण है महाभयद,
यह व्यर्थ कभी न जायेगा।
इसका अवरोध कहाँ तब तक,
जब तक न शत्रु को खायेगा॥

यह मन्त्रपूत ब्रह्मास्त्र विकट,
इसका न लक्ष्य खोनेवाला।
काँटे ही सदा उसे मिलते,
जो है बबूल बोनेवाला॥

बोले आखण्डल-" किसी तरह,
हो सकता तेरा त्राण नहीं।
यह वज्र-विनिन्दक ऐशिकास्त्र,
कोई साधारण बाण नहीं॥

झट भाग यहाँ से अरे मूढ़!
मेरे वश की है बात नहीं।
यह क्या है, क्या है भासमान,
इसकी महिमा कुछ ज्ञात नहीं॥"

जब बचा न पाए स्वयं इन्द्र,
व्याकुल जयन्त तब भाग चला।
सुरलोक कोलाहल से भरता,
करता अजस्र रव नाग चला॥

असहाय, विलपता, विफल काम,
ब्रह्मा औ' शिव के धाम गया।
पा सका शरण नहीं भी खल,
उसका सब श्रम बेकाम गया॥
था गया नीच वह जहाँ कहीं,
पीछे से पहुँचा बाण वहाँ।
हाँ, दुष्ट दुरात्मा पापी को,
मिल सकता जीवन त्राण कहाँ॥

अविराम भागते नर्क-कीट को,
नहीं तनिक विश्राम मिला।
वह जहाँ खिन भी गया धधकता,
राम-बाण घिघ्घाम मिला॥

अब रंचक चलना दूभर था,
थक गये पाँव थे, बढ़ न सके।
क्या करें भला कुछ भी उपाय
उसके दिमाग से कद न सके॥

लेकिन सौभाग्य प्रबल उसका,
मिल गए बीच पथ में नारद॥
निस्संग, अनागत-विज्ञ, राम के
परम भक्त, गुण के पारद॥

वे स्वर्ग, मर्त्य, पटल लोक में
गाते शांत विचरते हैं।
हैं बड़े दयालू, कृपाशील,
निर्बाध विचार वितरते हैं॥

अति त्रस्त-स्रस्त देवेन्द्र तनय
को देख उन्होंने ध्यान किया।
क्षण भर में अपनी योगशक्ति
द्वारा रहस्य सब जान लिया॥

बोले फिर गूढ़ वचन हँसकर,
" रे मूढ़ कहाँ तक भागेगा?
अपनी रक्षा के लिए बता तू
शरण कहाँ तक माँगेगा?
तेरी काया में मातृ-पितृ
दोनों पक्षों का दोष भरा।
तू इसीलिए हर क्षण रहता,
सत्ता-मदान्ध, अति रोष-भरा॥

तू उसी इंद्र का पुत्र कि जिससे
सभी सर्जन का बैर ठना।
तू उसी विडौजा का बेटा
जिसने असंख्य व्यभिचार जना॥

तू उसी सहस्त्रलोचन का सूत,
जिसने सतियों का शील हरा।
तू उसी शक्र का वक्र तनय,
जिससे पीड़ित नक्षत्र-धरा॥

तू उसी पुरन्दर का अंगज,
जिसने गुरु का अपमान किया।
तू उसी वज्रधर का आत्मज,
जिसने त्रिशिरा के प्राण लिया॥

तू वासव का शवसदृश सूनु,
तू जन्मजात अतिचारी है।
तू देव-जाति का चिर कलंक,
तू भोग-भ्रष्ट, भयकारी है॥

तेरे कुकर्म का न्यायोचित
श्री रामचन्द्र ने दण्ड दिया।
पा गया कुचक्रों का प्रतिफल,
जैसा तूने पाखण्ड किया॥

रे बोल कौन जो राम-शत्रु को
शरण कभी है दे सकता?
रे कौन बता सम्मान त्याग,
अपमान शीश पर ले सकता?
श्री राम परात्पर परमब्रह्म,
वे अष्टसिद्धि के स्वामी हैं।
वे ही घट-घट में रमे हुए,
जन-जन के अन्तर्यामी हैं॥

श्री राम विरज, विभु, परम शक्ति,
अमिताभ, महाचिति, सुरपुंगव।
वे शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, नित्य,
चिर निर्विकार, संसृति-संभव॥

वे ही हैं स्वजन, पिता-माता,
धन-मान, मित्र-प्रभु, प्राणेश्वर।
वे हैं विष्णु, जगत-पालक,
सर्जक ब्रह्मा, शिव विश्वेश्वर॥

अब उन्हें छोड़कर निखिल सृष्टि में
तेरी कोई शरण नहीं।
जा क्षमा माँग ले तू उनसे,
ले ले जीवन, यह मरण नहीं॥

जा भाग उभिन की शरण,
दर्प का त्याग हृदय से तू विभ्रम।
यों बाख न सकेगा अरे मूर्ख,
इस तरह निकल जायेगा दम॥

मन से मद, इर्ष्या और मोह,
तजकर प्रमाद, पातक भीषण।
तू भाग शीघ्र उस छाया में,
है नहीं जहाँ आतप तीक्षण॥

जा तुरत क्षमा कर देवेंगे,
वे राम दया के सागर हैं।
हैं मेरे इष्टदेव रघुवर,
सदधर्म-निरत, नय-नागर हैं॥
वे हैं पराक्रमी, सौम्य, ललित;
उनका न क्रोध निष्फल जाता।
ले बता दिया सीधा उपाय
अन्यथा दौड़ कर मर जाता॥

प्रभु से विरोध कर बोल भला,
कोई कैसे जी सकता है?
कोई सर के बल खड़े-खड़े,
कैसे पानी पी सकता है?

वे सिया न निर्बल नारी हैं,
वे ही हैं शक्ति जगन्माता।
उनसे बढ़कर है कौन? हाय,
तूने क्यों तोड़ लिया नाता?

वे रिद्धि-सिद्धि, आज्ञा, आशा,
वैष्णवी, लक्ष्मी, वरदाता।
वे त्रिपुरसुन्दरी राम-प्रिया,
हैं जगद्धारिणी, जग-त्राता॥

तू शरण उन्हीं की जा सत्वर,
अन्यथा तेरा कल्याण नहीं।
वह बाण आ रहा है भीषण,
छोड़ेगा तेरे प्राण नहीं॥

इस राम-विशिख कालानल में,
तेरी सुदेह जल जाएगी।
तू तो तन त्याग सुखी होगा,
पर, शचीव्यर्थ दुःख पायेगी॥

हाँ, पुत्र-मरण से बढ़कर माँ के
लिए न कोई दुःख होता।
लेकिन होता है हाल यही,
जो भी जन राम-विमुख होता॥
यह राम बाण है चिर अमोघ,
इसका न लक्ष्य-हत होता है।
रे मूढ़! बाह्ग तू राम शरण,
क्यों व्यर्थ प्राण को खोता है?

उत्तम है मेल-जोल रखना,
निर्बल का सदा बलीनों से।
बनता है स्वर्ण अधिक शोभन,
जुड़ता जब दीप्त नगीनों से॥ "

इतना कह करके मौनिराट ने
आँख मूँद, निःस्वास लिया।
मानो जयन्त को इसी ब्याज,
फिर से आशा-विश्वास दिया॥

श्री नारद को करके प्रणाम,
पापी जयन्त प्रभु पास चला।
अपनी प्रवंचना में वायस था,
मन में अधिक उदास चला॥

इधर चल पड़े देव-ऋषी,
करते 'महती' वीणा-वादन।
सर्वेश्वर की कलित कीर्ति का
मधुर मधुर करते गायन॥