तृप्त मयूरी हो ना पाई / विष्णु सक्सेना
तृप्त मयूरी हो ना पाई, प्यासी ही रह गई चातकी,
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।
मैंने वंदनवार सजाए,
क्या तुमको आभास हुआ?
कलियों ने अपमान सहा है,
फूलों का परिहास हुआ।
रात तुम्हारी सदा सुहागन, मेरी चिंता है प्रभात की,
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।
विरह-व्यथा आँसू ने कह दी,
मैंने मन की पीर छिपाई।
केवल था सुधियों में जीवन,
जीवन की सुधि कभी न आई।
ईश्वर से सबने है पाया, मुझ से विधि ने बड़ी घात की
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।
कैसे जन्म सार्थक मानूँ,
जब जीवन में तुम्हीं न आए?
वरदानों से भरे जगत में,
मैंने केवल शाप कमाए।
एक रंज जीवन की निधि है, शतरंजों ने कहाँ मात की
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।
हम-तुम ऐसे दूर रहे हैं,
जैसे दूर नदी के तट हैं।
कौन भरोसा करे यहाँ पर,
पग-पग पर बिछ रहे कपट हैं।
मन-अशांत की शांत नदी में, कल-कल भाई कब प्रपात की?
सत्य छिपाना तुमने सीखा, मेरी आदत खरी बात की।