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तेग़-ए-निगह-ए-दीदा-ए-खूँख़ार निकाली / मरदान अली ख़ान 'राना'

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तेग़-ए-निगह-ए-दीदा-ए-खूँख़ार[1] निकाली
क्यूँ आपने उश्शाक़[2] पे तलवार निकाली

भूले हैं ग़ज़ालान-ए-हरम[3] राह ख़ता से
तुमने अजब अंदाज़ की रफ़्तार निकाली

धड़का[4] मेरे नाले[5] का रहा मुर्ग़-ए-सहर[6] को
आवाज़ शब-ए-वस्ल न ज़िन्हार[7] निकाली

हर घर में कहे रखते हैं कोहराम पड़ेगा
गर लाश हमारी सर-ए-बाज़ार निकाली

आख़िर मेरी तुर्बत[8] से उगी है गुल-ए-नर्गिस[9]
क्या बाद-ए-फ़ना[10] हसरत-ए-दीदार[11] निकाली

मैं वस्ल[12] का साइल[13] हूँ न वादे का तलबगार[14]
बातों में अबस[15] आपने तकरार[16] निकाली

जल जाएगा ये ख़िरमन-ए-हस्ती[17] अभी ऐ दिल
सीने से अगर आह-ए-शरर-बार[18] निकाली

दिल लेके भी 'राना' का किया पास[19] न अफ़सोस
कुछ हसरत-ए-दिल[20] तूने न अय्यार[21] निकाली

(1. तलवार के जैसी खूँख़ार निगाहें; 2. आशिक़; 3. हिरन; 4. अंदेशा/डर; 5. विलाप; 6. प्रातः काल चहचहाने वाले पक्षी/बांग देने वाला मुर्गा; 7. हरगिज़; 8. क़ब्र; 9. फूलों की एक क़िस्म; 10. मरने के बाद; 11. दर्शन करने की इच्छा; 12. मिलन/मुलाक़ात; 13. पूछने वाला; 14. ज़रूरतमंद/इच्छुक; 15. बेकार/फ़िज़ूल में; 16. झगड़ा; 17. जीवन का खेत-खलिहान; 18. चिंगारी भरी आह; 19. लिहाज़; 20. दिल की ख़्वाहिश; 21. मक्कार)

शब्दार्थ
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