तेज़ हवा की रात / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
कल की रात तेज़ हवा के झोंकों भरी रात थी-असंख्य नक्षत्रों की रात,
सारी रात अपार हवा मेरी मच्छरदानी उड़ाती रही
मच्छरदानी कभी फूल उठी, मौसमी समुद्र के पेट की तरह,
कभी बिस्तर छोड़कर नक्षत्रों की तरफ उड़ जाना चाहा उसने
आधी नींद में लगता-
शायद मच्छरदानी मेरे सर पर नहीं
स्वाति तारे की गोद से रगड़ खाती हवा के नील सागर में
सफे़द बगुले की तरह वह उड़ी।
ऐसी अद्भुत रात थी कल की रात।
मरे हुए नक्षत्र कल जीवित हो उठे थे-आकाश में तिलभर रखने की जगह न थी,
पृथ्वी के लुप्त प्राय मृतकों का धुँधला चेहरा भी मैंने उन्हीं नक्षत्रों में देखा,
रात के अन्धकार में अश्वत्थ के शिखर पर प्रेमी चील पुरुषों से
शिशिर से भीगी आँख की तरह झिलमिला रहे थे तारे,
चाँदनी रात में बेबीलोन की रानी की देह पर
चीते की चमकीली खाल की शाल-सा चमक रहा था-विशाल आकाश।
ऐसी अद्भुत रात थी कल की रात।
जो नक्षत्र आकाश की छाती पर हज़ारों साल पहले मर गये थे
वे भी कल जँगले के भीतर से असंख्य मृत आकाश साथ लेकर आये थे,
जिन-जिन रूपसियों को मैंने एशिया, मिस्र, विदिशा में मरते देखा
कल वे सब सुदूर दिगन्त पर कोहरे में लम्बे भाले
हाथ में लिये क़तार में खड़े हो गये थे-
मृत्यु को हराने?
या जीवन की जीत जताने के लिए?
या प्रेम की भयावह गम्भीर स्तब्धता भूलने के लिए?
एक गहरे नीले अत्याचार ने मुझे फाड़कर रख दिया कल रात,
विरामहीन आकाश के विस्तृत डैनों के भीतर
पृथ्वी कीड़े की तरह मर गयी थी आकाश की छाती से उतरकर
मेरे जँगले के भीतर सायँ-सायँ करती,
सिंह की गर्जना से भयभीत हरे प्रान्तर में सैकड़ों जे़बरों की तरह।
मेरे अंतर में मर आयी विस्तृत फलिट की हरी घास की गन्ध,
दिगन्त प्लावित हो आया तीखी धूप की गन्ध से मानो
मिलनोन्मत्त बाघिनी की गर्जना-अन्धकार चंचल विराट
जीवन के कठोर नील प्राण को लेकर
मेरा रोम-रोम जाग उठा।
मेरा हृदय पृथ्वी छोड़
एक नक्षत्र को माथे पर उठाये तारों तारों में उड़ाकर ले जाते
एक गिद्ध की तरह-
हवा के नीले सागर में स्फीत पागल गुब्बारे की तरह उड़ गया।