तेरहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
जय-जय-जय शंकर प्रलयंकर!
उठ, खोल तीसरा नेत्र विश्व मं मचे प्रलय गूँजे हर्-हर्॥
कर रहा विश्व अपना पोषण
भारत का कर निर्मम शोषण
फिर भी अपनी संस्कृति का वह उद्घोषणा करता है सस्वर॥
सह चुका यातनाएं अनेक
क्या कहूँ एक से प्रबल एक
यह देश; किन्तु रह गई टेक, पौरुष प्रसुप्त अब जागृत कर॥
केवल दिवसों की बात नहीं
केवल मासों की बात नहीं
केवल वर्षों की बात नहीं, बीती शताब्दियाँ-मन्वन्तर॥
चल रहा निरन्तर यही चक्र
क्या है भारत का भाग्य वक्र?
है खड़ा हुआ मुँह फाड़ नक्र-सा विश्व इसे रखने अन्दर॥
ओ प्रिय महेश! यह वही देश
जिसकी गौरव-गाथा हमेशा
गाते रहते देवेश, मस्त झूमा करता था अखिलेश्वर॥
अब कितनी और समाधि शेष!
अन्तिम साँसें ले रहा देश!
है छिन्न-वेष, कंकाल-मात्र अवशेष, एक क्षण-क्षण दुष्कर॥
तू खोल नेत्र, मत कर विलम्ब
तू ही तम का दीपक-स्तम्भ
करसजग हमारी अम्ब, प्रलयका दृश्य उपस्थित हो मिलकर॥
ओ! एक बार सिर हिला आज
बम-बम गा गूँजे शब्द आज
हिल उठे विश्व का क्रूर साज, हों नष्ट ताज गिर-गिर भू पर॥
सर्पों से कह, कर फूत्कार
कर दे विषाक्त यह जग अपार
बन शेषनाग दें हिला धरा, कम्पित हो सृष्टि सकल थर्-थर्॥
कह दे गंगा से ले हिलोर
भर दे दिशि-दिशि में प्रबल रोर
बह उठे विश्व का ओर-छोर, पृथ्वी लहराए बन सागर॥
कह दे हिमांशु से हिम-वर्षण
कर गला विश्व का दे कण-कण
जिससे भीषण जल-प्लावन भी बन जाय एक हिम का पत्थर॥
डमरू-शृंगी का प्रलय-राग
सुन आवें भूत-पिशाच भाग
ओ भूतनाथ! कह रक्त-फाग खेलें जग से भर-भर खप्पर॥
शोभित त्रिपुण्ड में उच्च भाल
कर में त्रिशूल, गल-मुण्ड-माल
सँग ले विशाल-विकराल काल-सम सैन्य-जाल ओ अविनश्वर॥
(स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व)