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तेरहवीं ज्योति - यमुना / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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यमुने! तू लेकर तेज धार
क्यों बहती रहती है अविरल?
क्यों उपकूलों से टकराकर
तेरा जल हँसता है कल-कल॥1॥

क्या! तेरी ही इस तेज धार
से यम-दूतों को हुई त्रास?
जिससे कल-कल जल हँसता है
प्रकटित करता विजयोल्लास॥2॥

क्यों तेरे इन उपकूलों पर
है उगी घास कोमल-कोमल?
क्यों यह तेरा हर्षोल्लास
प्रकटित करती रहती पल-पल?॥3॥

यमुने! तेरा उज्ज्वल प्रवाह
बहता है लेकर मधुर रीर!
नीरव, प्रशान्त निशि का प्रति-पल
गुंजित करता है ओर-छोर॥4॥

प्रातः ऊषा आते ही जब
रंगीन रश्मियाँ फैलाती।
तेरी नीली औ’ श्वेत उर्मियों
में विचित्रता भर जाती॥5॥

उस समय छटा तेरी लगती
ऐसी अपूर्व, अनुपम सुन्दर!
मानो नभ का ही इन्द्र-धनुष
अवतीर्ण हो रहा हो जल पर॥6॥

जब सन्ध्या सारी जगती को
निज रजत-करों से छू देती।
तेरी निश्चल औ’ शान्त सतह
में भी सुन्दरता भर देती॥7॥

लगता-सफेद चादर ओढ़े
दिन भर चंचल प्रवाह चलकर।
निशि में तेरी ही गोदी में
सुख पाकर सोया है थक कर॥8॥

चन्द्रिका-युक्त तेरे जल में
पड़ती तारों की परछाई।
लगता-यमुना में भूपर ही
नभ-गंगा आज उतर आयी॥9॥