तेरा खत / सरोज परमार
सदियों के पँखों पर उड़ता
सागर की लहरों पर तिरता
दर्द के लम्हात में सब्ज़े सा
तेरा ख़त आया।
मेरे दोस्त !
किसी सहराँ में,
बदली से गिरी बूँद-सा
तेरा ख़त
किसी आगोश में दुबके
चाँद की पेशानी पर पसीने सा
तेरा ख़त
मौन को नये अर्थ दे गया
टूटे सन्दर्भ जोडने के लिये।
खीझ भरी औपचारिकता
कुढ़ती हुई शालीनता
ओढ़े किसी अजायबघर का
कोई कोना नहीं बन पाऊँगी।
यह क्या कम है-----
गहराते हुए मौसम में
उगते हुए रिश्ते
फसली सम्बन्ध
प्रश्नों की भीड़
झेल-झेल कर भी
मन का कोई कोना
कोयलों सा नहीं धधकता
लावे सा नहीं पिघलता
सुन ! सकें तो सुन
अय्याश सूरज रोज़ सा
चल पड़ा है दोना सम्भाले
रात के माथ पर
उभरी हैं दर्द की लकीरें
बिचका दिये हैं होंठ
बूढ़ी चाँदनी ने---
थर्राती हुई उँगलियाँ लिख रही हैं
निढाल जिस्म पर इतिहास
मुर्झा गई है धूप
उड़ गई है ख़ुश्बू
देख ! मेरे दोस्त
कल तक जो पैग़ाम देती थी ज़िन्दगी का
आज ज़िन्दगी की आग में जल रही हूँ
फर फिर भी
मेरी आग अभी ज़िनदा है