भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरा भुजबन्धन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
15
अश्रु विकल
जब-जब बहते।
तुमको सोचूँ।
16
तुमको पाया
पल-पल अघाया।
प्यास तुम्हीं थीं।
17
ताप मिटे हैं
अधर- छुअन से
तन-मन से ।
18
स्वर्गिक सुख-
तेरा भुजबन्धन
महामिलन ।
19
बाहों के घेरे
जब कसे तुम्हारे
दर्द मिटे हैं।
20
सिन्धु-अगाध
जब-जब मैं डूबा
तुम ही मिले।
21
थी सूनी घाटी
पुकार सुन भीगी
मन की माटी।
22
जीवन की लू
तपी थी मन की भू
नेह से सींची।
23
सांध्य गगन
कर गया उदास
एकाकी मन।
24
स्वर्णिम मेघ
लुभाते गगन को
कुंचित केश।
25
घटा में धूप
मोह गया मन को
तेरा ये रूप।
26
फैला गगन
उमड़ते ये घन
मेरा ही मन।
27
हर आँगन
सुवासित हों रोम
बन चन्दन
28
जीवन-छन्द
अम्बर तक डोरी
छू लिया चन्दा।