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तेरी-मेरी जीवन-कथा / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
वो भी तो कुल जीवन न था, बस कुछ पलों का मोह था
आँखें मेरी जज़्बों भरी, चेहरा तेरा बोसों भरा
वो जब मिली सोचा यही, उसका मेरा रिश्ता है क्या?
इस ख़त पे है लिखा हुआ नाम और पता इक और का
बादल-भरा मौसम हूँ मैं, सूरज कभी, साया कभी
इक पल इधर कुछ और हूँ, इक पल उधर कुछ और था
ऐसी कोई साअत* भी है जो मुझको दे मानी मेरे
कहना कि मैं लफ़्ज़ हूँ, मफ़हूम* से बिछड़ा हुआ
मौज़ें बहा ले जाएंगी शब्दों की सारी किश्तियाँ
पानी पे है लिखी हुई, तेरी-मेरी जीवन-कथा
वो कौन था, क्या था भला, इससे मुझे क्या बहस है
कल तक वो मेरे साथ था, जैसा भी था अच्छा-बुरा
जीवन-मरण का योग था, उसका मेरा, होगा कभी
अब ज़िंदगी मिलती है यूँ, पल-भर की जैसे दाश्ता
1- साअत--समय 2- मफ़हूम--अर्थ