Last modified on 4 नवम्बर 2013, at 09:06

तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था / अमीर हम्ज़ा साक़िब

तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
तेरे हुज़ूर पा-ए-काएनात में लंग था

सहरा को रौंदने की हवस पा ब-गिल है अब
यूँ था कभी के दामन-ए-आफ़ाफ़ तंग था

दामन को तेरे थाम के राहत बड़ी मिली
अब तक मैं अपने आप से मसरूफ़-ए-जंग था

हँगाम-ए-याद दिल में न आहट न दस्तकें
शोरिश-कदे में रात ख़ामोशी का रंग था

तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
चेहरों पे अपने वरना तो बरसों का जंग था

रक़्स-ए-जुनून में भी था तारीक-ए-हुनर का ढब
सूफ़ी-ए-बा-सफ़ा था कोई या मलंग था

क्या आसमाँ उठाते मोहब्बत में जब के दिल
तार-ए-निगह में उलझी हुई इक पतंग था