तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
तेरे हुज़ूर पा-ए-काएनात में लंग था
सहरा को रौंदने की हवस पा ब-गिल है अब
यूँ था कभी के दामन-ए-आफ़ाफ़ तंग था
दामन को तेरे थाम के राहत बड़ी मिली
अब तक मैं अपने आप से मसरूफ़-ए-जंग था
हँगाम-ए-याद दिल में न आहट न दस्तकें
शोरिश-कदे में रात ख़ामोशी का रंग था
तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
चेहरों पे अपने वरना तो बरसों का जंग था
रक़्स-ए-जुनून में भी था तारीक-ए-हुनर का ढब
सूफ़ी-ए-बा-सफ़ा था कोई या मलंग था
क्या आसमाँ उठाते मोहब्बत में जब के दिल
तार-ए-निगह में उलझी हुई इक पतंग था