तेरी गंध / आनंद कुमार द्विवेदी
कौन समझेगा इन मौसमों को
और समझने की कोशिश भी क्यों
पल पल बदलती कायनात
अहोभाव से भरा हुआ वजूद
प्रेम से भरा हुआ दिल
रजनीगंधा सी महकती हवाएँ
संगीत सी बजती ध्वनियाँ
उर्जाओं से लयबद्ध कदमताल
हर तरफ बेवज़ह आतिशबाज़ियाँ
क्या है ये सब
एक तेरी आहट में इतनी शक्ति ?
दुनिया हर कदम पर चकित करती है
और चकित करती है
प्रेम की अपार शक्ति
ईश्वर नगाड़े बजाता है कई बार
बहरे बने हम
मैं मैं के आगे नहीं सुनते कुछ भी,
सुनो अनाड़ी प्रियतम !
(अनाड़ी इसलिए कि जितना लेते हो उससे ज्यादा दे जाते हो)
ले जाओ मुझसे जो भी है मेरे आसपास
रखना चाहता हूँ हर पल खाली यह घट मैं
अपनी कामनाओं से
ताकि तुम्हारे अहसास की सुगंध
बे-रोकटोक आती और जाती रहे
और जब मिट्टी का यह घट फूटे
तो न निकले इससे मेरी इच्छाओं का मलबा
बल्कि बिखरे इससे तुम्हारी सुगंध
तुम्हारी ही सुरभि !