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तेरी चश्‍म-ए-सितम-ईजाद से डर लगता है / 'मुशीर' झंझान्वी

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तेरी चश्‍म-ए-सितम-ईजाद से डर लगता है
ये ग़लत है किसी उफ़्ताद से डर लगता है

इसलिए चुप हूँ के आदाब-ए-क़फ़स पर है नज़र
कौन कहता है के सय्याद से डर लगता है

हम तो लज़्ज़त-कश-ए-आज़ार हैं ऐ जोश-ए-वफ़ा
और हैं वो जिन्हें बे-दाद से डर लगता है

तेरे जलवों को कहीं आम न कर दें ऐ दोस्त
इसलिए मानी ओ बहज़ाद से डर लगता है

काश वो वक़्त न आए मेरी दुनिया में कभी
जब मोहब्बत की हर उफ़्ताद से डर लगता है

कहीं ऐसा न हो ज़िंदाँ भी बयाबाँ हो जाए
इश्‍क़ कह फ़ितरत-ए-आज़ाद से डर लगता है

पहले डर था के कहीं भूल न जाऊँ तुझ को
अब ये आलम है तेरी याद से डर लगता है

न वो आदाब-ए-वफ़ा हैं न वो आदाब-ए-जुनूँ
ऐ ‘मुशीर’ अब दिल-ए-ना-शाद से डर लगता है