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तेरी चिन्ता, तेरी पीड़ा / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
तेरी चिन्ता, तेरी पीड़ा, तेरा दुःख, विषम उर-दाह।
तेरे मन की सभी असुन्दर-सुन्दर मीठी-खारी चाह॥
सभी, प्रिये! वे मुझमें होतीं, होंगी आगे भी अनुभूत।
तन-मन तेरे सारे मुझमें मिलकर परम हो गये पूत॥
मेरे पावन पूत हृदय की पूत वासना तुममें जाग।
करती सदा मुझे प्रतिभावित, प्रकटाती विशुद्ध अनुराग॥
वही परम अनुराग-भाव बन सदा खेलता नाना रंग।
महाभाव में परिणत हो, वह करता उदय अनन्त तरंग॥
ये विशुद्धतम विपुल तरंगें हैं सब मेरा मधुमय रूप।
मैं ही तू मैं दोनों बन नित करता रास-विलास अनूप॥
बन जाता मैं दारुण दुःख-वियोग, परम सुखमय संयोग।
तेरे अंदर रोकर-हँसकर करता नित निज रस-सभोग॥
इस अनुपम लीला-रहस्यको समझ, पृथक्ता का तज भान।
लीला, लीलाकर्ता-भोक्ता, मैं-तू सदा एक भगवान॥