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तेरी ज़ुल्फ़ें ग़ैर अगर सुलझाएगा / शाद अज़ीमाबादी

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तेरी ज़ुल्फ़ें ग़ैर अगर सुलझाएगा
आँख वालों से न देखा जाएगा

सब तरह की सख़्तियाँ सह जाएगा
क्यूँ दिला तू भी कभी काम आएगा

एक दिन ऐसा भी नासेह आएगा
ग़म को मैं और ग़म मुझे खा जाएगा

ऐ फ़लक ऐसा भी इक दिन आएगा
जब किए पर अपने तू पछताएगा

वस्ल में धड़का है नाहक़ हिज्र का
वो दिन आएँगे तुझे समझाएगा

आ चुके अहबाब उठाने मेरी लाश
नाज़ उस को देखिए कब लाएगा

चोट खाए दिल का मातम-दार है
मेरा नाला भी तड़पता जाएगा

छोड़ दे हम वहशियों को ऐ ग़ुबार
पीछे पीछे तू कहाँ तक आएगा

मुंतज़िर है जान-ए-बर-लब-आमदा
देखिए कब फिर के क़ासिद आएगा

हिज़्र में नाले ग़नीमत जान ले
फिर तो ख़ुद ऐ ज़ोफ़ तू पछताएगा

नीम-कुश्‍ता हैं तो हैं फिर क्या करें
कुछ अगर बोलें तो वो शरमाएगा

जोश-ए-वहशत तुझ पे सदक़े अपनी जान
कौन तलवे इस तरह सहलाएगा

और भी तड़पा दिया ग़म-ख़्वार ने
ख़ुद है वहशी क्या मुझे बहलाएगा

राह-रौ तुझ सा कहाँ ऐ ख़िज़्र-ए-शौक़
कौन तेरी ख़ाक-ए-पा को पाएगा

बाग़ में क्या जाएँ आती हैं ख़िज़ाँ
गुल का उतरा मुँह न देखा जाएगा

मेरी जाँ मैं क्या करूँगा कुछ बता
जब तसव्वुर रात भर तड़पाएगा

क्यूँ न मैं मुश्‍ताक़ नासेह का रहूँ
नाम तेरा उस के लब पर आएगा

दिल के हाथों रूह अगर घबरा गई
कौन उस वहशी को फिर बहलाएगा

खो गए हैं दोनों जानिब के सिरे
कौन दिल की गुत्थियाँ सुलझाएगा

मैं कहाँ वाइज़ कहाँ तौबा करो
जो न समझा ख़ुद वो क्या समझाएगा

थक के आख़िर बैठ जाएगा ग़ुबार
कारवाँ मुँह देख कर रह जाएगा

दिल के हाथों से जो घबराओगे ‘शाद’
कौन इस वहशी को फिर समझाएगा

कम न समझो शौक़ को ऐ ‘शाद’ तुम
इक न इक बढ़ के ये आफ़त लाएगा

है ख़िजाँ गुल-गश्‍त को जाओ न ‘शाद’
गिर्या-ए-षबनम न देखा जाएगा

कुछ न कहना ‘शाद’ से हाल-ए-ख़िजाँ
इस ख़बर को सुनते ही मर जाएगा