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तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है/ विनय प्रजापति 'नज़र'
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लेखन वर्ष: २००४/२०११
तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है
रह-रहकर रुक-रुककर ये बार-बार उठती है
हम बीमारि-ए-इश्क़ के मारे हुए हैं और
तेरी नज़र पैनी होकर बार-बार उठती है
नाज़ो-नख़्वत<ref>नाज़ और नख़रे</ref> के पैमाने किस तरह उठाऊँ
नज़र जब उठे है तो ज़िबह<ref>लड़ाई, क़त्ल</ref> को यार उठती है
हम देखते हैं तेरे जानिब<ref>ओर, तरफ़</ref> प्यार की नज़र से
तेरी नज़र, तौबा! मानिन्दे-कटार<ref>तलवार की तरह (आवाज़ करती हुई)</ref> उठती है
उस ग़ैर से तुमको मोहब्बत हुई है बे-वजह
और फिर भी नज़र बाइसे-गुफ़्तार<ref>बात करने के लिए</ref> उठती है
हैं चमन में और भी नज़ारे ऐ ‘नज़र’ लेकिन
फिर क्योंकर तेरी नज़र सिम्ते-यार<ref>प्रेयसी की ओर</ref> उठती है
शब्दार्थ
<references/>