Last modified on 30 सितम्बर 2018, at 11:43

तेरी दरगाह से मिलती जो इजाज़त तेरी / अनु जसरोटिया

तेरी दरगाह से मिलती जो इजाज़त तेरी
हम भी कर जाते किसी रोज़ ज़ियारत तेरी

राख का ढेर है, बुझती हुई चिंगारी है
इस से बढ़ कर तो नहीं कुछ भी हक़ीक़त तेरी

रोता रहता है ग़रीबी का तू रोना हर दम
कुछ सुदामा से तो बढ़ कर नहीं ग़ुरबत तेरी

अब सिवा तेरे दिखाई नहीं देता कुछ भी
दिल को किस मोड़ पे ले आई मुहब्बत तेरी

दौड़ता है तू लहू बन के हमारे दिल में
हम किसी तौर न बन पाये ज़रूरत तेरी

बँद दरवाज़े भी क्या रोक सकेंगे इस को
चोर दरवाज़ों से आ जाये गी चाहत तेरी

उठ के तू चल भी दिया ऐसी भी क्या जल्दी थी
हम ने देखी भी न थी ग़ौर से सूरत तेरी

जब बनाये गा कोई रेत का घर साहिल पर
हम को याद आये गी बचपन की शरारत तेरी

किसी मेले किसी महफ़िल में नहीं दिल लगता
रास आती है फ़क़त हम को तो सँगत तेरी