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तेरी दावत में गर खाना नहीं था / राकेश जोशी
Kavita Kosh से
तेरी दावत में गर खाना नहीं था
तुझे तंबू भी लगवाना नहीं था
मेरा कुरता पुराना हो गया है
मुझे महफ़िल में यूं आना नहीं था
इमारत में लगा लेता उसे मैं
मुझे पत्थर से टकराना नहीं था
ये मेरा था सफ़र, मैंने चुना था
मुझे काँटों से घबराना नहीं था
समझ लेता मैं ख़ुद ही बात उसकी
मुझे उसको तो समझाना नहीं था
तुझे राजा बना देते कभी का
मगर अफ़सोस! तू काना नहीं था
छुपाते हम कहाँ पर आँसुओं को
वहाँ कोई भी तहख़ाना नहीं था
मुहब्बत तो इबादत थी किसी दिन
फ़क़त जी का ही बहलाना नहीं था
जहाँ पर युद्ध में शामिल थे सारे
वहाँ तुमको भी घबराना नहीं था