तेरी पाती के संबोधन / शंकरलाल द्विवेदी
तेरी पाती के संबोधन
तेरी पाती के संबोधन, देते हैं मन को आस वही-
विरहिणि की दुःखी अटरिया पर, जैसे कोई कागा बोले।।
मैंने जब-जब जैसे गाया, वैसे ही तुमने दुहराया।
फिर भी स्वर से गूँथा गायन, लगता है जैसे अनगाया।
मैं मधुऋतु बिछा रहा पथ में, तुम हो कि जा रहीं पतझर में।
ज्यों लता किसी के आँगन की, झुक जाए पड़ोसी के घर में।।
नीरस गतियों का आकुल मन, भरता है विवश रुलास वही-
अपनी चेतन-जड़ता पर ज्यों वीराने का बिरवा रो ले।।
फूले पलाश-सी ज्वाला में, जलता है रोम-रोम मेरा।
मन पर बढ़ता ही जाता है, तम की परछाईं का घेरा।
लाया था जनमत ही क्यों मैं, तकदीर भला ऐसी दुःखिया?
बँटवारे में मिल गई मुझे, अपमान भरी दुख की दुनिया।।
मन की अमराई छू-छू कर, फिरतीं हैं करुण पुकार वही-
वैभव के खँडहर के द्वारे, ठुकराई-सी पुरवा डोले।।
नीरव-निराश में सुधियों की रेखा हो जातीं यों विलीन-
सन्ध्या-बेला की डगर, घने अँधियारे में हो जाए लीन।
कहता हर रोज़ हलाहल यों- क्या होगा ऐसे जीने से?
निंदिया की बाँह गहो न बंधु! बस एक घूँट भर पीने से।।
मैं हूँ- अभिशप्त उमरिया को, अमृत के घूँट पिला बैठा।
ज्यों सिली कफ़न की चोली पर कोई मतवारी ख़ुश हो ले।।
-१९ मई, १९६३