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तेरी सरस्वती / असंगघोष
Kavita Kosh से
मेरे शब्द मौन रहे
कभी ज़बान पर आए भी नहीं
जब भी शब्दों ने कोशिश की
हलक से ऊपर आने
तूने मेरा गला ही घोंट दिया।
तेरे कथनानुसार
शब्दों की धार ही सरस्वती थी
ऐसी दशा में/भला सरस्वती
मेरी जिह्वा पर आती भी कैसे
तेरी गुलाम जो थी
अपनी बंदिनी बना
सदियों से उसे/तू पूजता रहा,
और वो ढीठ भी चिपकी थी
उसी जगह बेशर्मी से
जहाँ से तू जन्मा।
अब मैं भी
बोलना सीख गया हूँ।