भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरी हाँ में हाँ न मिला सका / नकुल गौतम
Kavita Kosh से
न तो झूट मैंने कहा कभी न ही सच का साथ निभा सका
मेरी हार का है सबब कि मैं तेरी हाँ में हाँ न मिला सका
मैं था जिसका अरसे से मुन्तज़िर वो मिला हो जैसे इक अजनबी
न तो बात उस से हुई कोई न गले उसे मैं लगा सका
कभी पढ़ के इन को मैं रो लिया कभी रख के सीने पे सो लिया
न ये चिट्ठियां मैं जला सका न किसी नदी में बहा सका
न बयान उन से हुआ कभी न ही दर्द दिल का छिपा कभी
न रुमाल उन को दिखा सका न ही अश्क उन से छिपा सका
थी बनाई मैंने भी कश्तियां तेरे साथ जीने के ख्वाब की
जो बढ़ा गयीं मेरी तिश्नगी मैं वो बारिशें न भुला सका
ये हरे शजर हों कि बदलियाँ ये नदी वो बर्फ पहाड़ पर
हैं तुम्हारी लिक्खी इबारतें कोई पढ़ सका न मिटा सका