तेरी ही बातों की बारिश में भीगा था
फिर जाकर तन-मन का पौधा हरा हुआ था
इक मुद्दत के बाद मुझे अहसास हुआ था
मैं तो चमकती रेत को ही पानी समझा था
मेरे मन मन्दिर में सौ-सौ फूल खिले थे
मैंने ख़ुश्बू को अपने भीतर पाया था
दौड़-भाग थक-हार के वो था ख़ुद से बोला
थी अन्दर कस्तूरी मैं बाहर भटका था
मैं जिस शख़्स से लड़ने को तैयार था हरदम
मेरा वो दुश्मन मेरे अन्दर बैठा था
अफ़रा-तफ़री के आलम में छोड़ा था घर
भूल के चाबी ताला घर में बन्द किया था