तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
सब्र ओ ताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं
इतने बिगड़े हैं वो मुझ से के अगर नाम उन के
ख़त भी लिखता हूँ तो सब हर्फ़ बिगड़ जाते हैं
क्यूँ न लड़वाएँ उन्हें ग़ैर के करते हैं यही
हम-नशीं जिन के नसीबे कहीं लड़ जाते हैं