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तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में / 'ज़ौक़'

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं
सब्र ओ ताक़त के वहाँ पाँव उखड़ जाते हैं

इतने बिगड़े हैं वो मुझ से के अगर नाम उन के
ख़त भी लिखता हूँ तो सब हर्फ़ बिगड़ जाते हैं

क्यूँ न लड़वाएँ उन्हें ग़ैर के करते हैं यही
हम-नशीं जिन के नसीबे कहीं लड़ जाते हैं