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तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा / शाद अज़ीमाबादी
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तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा।
उसी क़दर उसे हैरत है, जिस क़दर समझा॥
कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम।
ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा।
पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा।
कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा॥
न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब।
मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा॥