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तेरे पारस-पद-पद्म का परस पा / विमल राजस्थानी

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लोहा हूँ, तेरे पारस-पद्-पद्म का परस पा
प्रतिपल बदल रहा हूँ, सोने में ढल रहा हूँ
कंधों पै पाप ढोता, जाने कहाँ मैं होता
किस गाँव में, शहर में, होता कसाई-कर में
निर्दोष के लहू में,
कब तक मुझे डुबाता
जाने कहाँ मैं होता
मैं अस्त्र बन न पाया, गर्दन पै तन न पाया
कुछ पुण्य पा गया था तेरा सरस दरस पा
उस पुण्य के सहारे अब तक ‘विमल’ रहा हूँ
सोने में ढल रहा हूँ प्रतिपल बदल रहा हूँ
तुमने दिया है इतना, सागर में नीर जितना
तुम भोर, मैं प्रभाती, तुम दृष्टि हो मैं पाती
मैं दीप, तुम हो बाती, तुम दीप पर तरस खा
अस्नेह हो न पाये, फल है कि जल रहा हूँ
सोने में ढल रहा हूँ
प्रतिपल बदल रहा हूँ
है साधना की भट्ठी, गलता ही जा रहा हूँ
तेरी कृपा-सहारे (जो काज सब सँवारे)
पीताभ स्वर्ण-द्युति में ढलता ही जा रहा हूँ
गलता ही जा रहा हूँ
तुम स्वर्ण-शैल सुदर, मैं एक खण्ड लघुतर
चिपका रहूँ चरण से सानिघ्य शुभ, सरस पा
गिरता हूँ, पर, कृपा से गिर-गिर सँभल रहा हूँ
लोहा हूँ, तेरे पारस-पद्-पद्म का परस पा
प्रतिपल बदल रहा हूँ
सोने में ढाल रहा ह