भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरे भाई को चाहा अब तेरी करता हूँ पा-बोसी / शाकिर 'नाजी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तेरे भाई को चाहा अब तेरी करता हूँ पा-बोसी
मुझे सर ताज कर रख जान में आशिक हूँ मौरूसी

रफू कर दे हैं ऐसा प्यार जो आशिक हैं यक-सू सीं
फड़ा कर और सीं शाल अपनी कहता है मुझे तू सी

हुआ मख़्फी मज़ा अब शाहिदी सीं शहद की ज़ाहिर
मगर ज़ंबूर ने शीरीनी उन होंटो की जा चूसी

किसे ये ताब जो उस की तजल्ली में रहे ठहरा
रमूज़-ए-तूर लाती है सजन तेरी कमर मूसी

समाता नईं इज़ार अपने में अबतर देख रंग उस का
करे किम-ख़्वाब सो जाने की यूँ पाते हैं जासूसी

ब-रंग-ए-शम्मा क्यूँ याकूब की आँखें नहीं रौशन
ज़माने में सुना यूसुफ का पैराहन था फ़ानूसी

न छोडूँ उस लब-ए-इरफाँ को ‘नाजी’ और लुटा दूँ सब
मिले गर मुझ को मिल्क-ए-ख़ुसरवी और ताज-ए-काऊसी