तेरे शहर में / राहुल कुमार 'देवव्रत'
तुम खिले रहते हो मेरे गांव में
सुबह से शाम तक समेटते रहते हो धूप
ना थकते , ना ऊबते
उल्टे तपाक़ से मिलते हो अज़नबी लोगों से ...बेतकल्लुफ़
जब भी आते हो , ज़मीं पे तितलियों के रंग बो जाते हो
पता है ! गुस्सा नाक पर रखने वाली बाई
तुम्हारे चाय नाश़्ते का इंतज़ाम करते नहीं ऊबती
चार दिन होने को है मेरा , तेरे शहर में
ठीक से मिल भी कहां पाए
लिवा लाने को भेजी तुम्हारी गाड़ी ,
तुम्हारा कमरा , बिस्तर सब सलीक़े का तो है
पर जाने क्यों लगती हैं सब चीज़ें
फिट की हुई और उदास मुझको
कुदरत से दूर होती चीज़ें ज़ार-ज़ार रोती हैं
पता है पीठ पीछे तुम्हारी शिकायत करते हैं
गमलों के उदास पौधे
चार-चार , पांच-पांच दिन तक
तुम घर नहीं आ पाते
पकड़कर जब़रदस्ती ठूंस दी गई मछलियां बोलती तो नहीं
पर ख़ारा कर गई है पानी सीसे का
ज़िंदा रहने की आख़री ज़द्दोज़हद है
मर जाएंगी क़मीनी
पर निकोटिन-सी जमकर बैठी यादें ..भूलेंगी नहीं
ज़िद्दी ज़ात मकड़ी
बनाती रहती है रोज़ मक़ान , तन्मय
मेरा माथा बुद्ध हुआ जाता है
बड़े शहर में पैर धरते ही ठिकाने छोटे हो जाते
टिकना सहज नहीं होता
रास्ते का नाश्ता मेरे बैग में रखते
झेंप रहे हो तुम ........ मैं भी
शहर शुरू से ही नापसंद रहे हैं मुझको
तुम जानते हो