तेरे श्रम का ही है प्रतिफल ! / विजयदान देथा 'बिज्जी'
ऊषे!
यह रवि का प्रकाश जो
तेरे श्रम का ही है प्रतिफल!
ये अलग-अलग बिखरे
एकाकी प्रकाश-बिन्दू
तम के असीम सिन्धु में
करते झिलमिल
जिन्हें जगती के मानवगण!
कहते हैं तारकगण!
यह जो बड़ा-सा प्रकाश बिन्दु
जिसे सब सम्बोधित करते इन्दु!
माना वे हैं असंख्य अगणित
फिर भी हैं तो अलग-थलग!
इसलिए कर सकते कैसे
तम के अपरिमित सागर को
सस्मित उज्जवल ज्योतिर्मय?
पर इन बिखरे इधर-उधर
ज्योति-बिन्दुओं को तुम
तम के सागर में उतर
चुन-चुन कर
करती हो रवि-घट में एकत्रित!
जब यह स्वर्णिम-घट जाता है भर
तब उसे सिर पर धरकर
पनिहारिन-सी बल खाती
अल्हड़ यौवन-सी मदमाती
कर रूनझुन-रूनझुन
छमू-छनन
प्रातः आकर अम्बर पर
कर कुल-कुल
छल-छल छलका देती हो
वह गगरी स्वर्णिम
जगती के तमिस्र आँगन में
हो जाती ज्योतिर्मय सब संसार!
उस अनन्त ज्योतिर्मय सागर में
मछली-से उन्मुख पशु विहग और मानवगण
प्रमुदित हो करते विचरण!
जाग्रत श्वासों की सरिताएँ
इस सागर में कर कल-कल
मिल-मिल जाती हैं प्रतिपल!
ऊषे!
यह रवि का प्रकाश जो
तेरे श्रम का ही है प्रतिफल!