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तेरे सितम पे चाहे मुझे कुछ गिला नहीं / रविकांत अनमोल

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तेरे सितम पे चाहे मुझे कुछ गिला नहीं
फिर भी मैं आदमी हूँ कोई देवता नहीं

तेरे लिए कुछ और है मेरे लिए कुछ और
दुनिया का तौर सब के लिए एक सा नहीं

रुकना नहीं है दोस्त अभी और है सफ़र
ये मंज़िलें तो इब्तिदा हैं इंतिहा नहीं

रस्तों से मुझको प्यार है मंज़िल से क्या मुझे
क़िस्मत में मेरी धूप है बादे सबा नहीं

कुछ जीतने की आस भी रखना फ़ज़ूल है
कुछ हारने का दिल में अगर हौसला नहीं

जिसने लिखा है मेरा मुक़द्दर बताए वो
क्या कुछ मिरे नसीब में लिख्खा है क्या नहीं