भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेल जैसे ही खौला कड़ाह में / अवधेश्वर प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
तेल जैसे ही खौला कड़ाह में।
गिर गया हूँ मैं देखो अथाह में।।
इसमें मेरा कहाँ क्या कसूर है।
फँस गया हूँ मैं यूं ही गुनाह में।।
जुल्म करता वह घूमे बाज़ार में।
बेकसूरों को लेते निगाह में।।
हर जगह के यही तो हालात हैं।
गीत गाते ही खुश होते वाह में।।
भूख इतनी है उनको सम्मान की।
रूठ जाते हैं पाने की चाह में।।
मान मर्दन वह करते साहित्य का।
कूद जाते हैं यूं ही कड़ाह में।।