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तेल से लिथड़े / अनिरुद्ध नीरव
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तेल से लिथड़े
दिये के तले-तले
कुचले रहे
हम फतिंगे
रात भर
परवाज़ को मचले रहे
थे बहुत हम पास लौ के
लौ मगर थी दूर
जश्न के दिन
भार ढोते बन गए मज़दूर
रक्स चलता रहा
किरनों का अबाधित
चिपचिपाए पंख पहने
हम बहुत गंदले रहे
और अब तो
घोषणा होने लगी है
बारहाँ
तम है कहाँ ?
रौशनी की
सहज परछाईं पड़ी होगी
वहाँ
तुम थे जहाँ
मृत्तिका की ढूह बैठी
न्याय करती रही बाती
हम गड़े
सिंहासनी पुतले रहे ।