तेसर मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
हे इन्द्र! अहँक रक्षा साधन हम पाबी
अनुकूल बनय मेघा परिपूर्ण मरुद्गण
बिजुरी आ वाणी आबय अनुशासनमे
आबी अहँ, जखने करी अहँक आवाहन
हे मरुत! महत्ता वायुक जनने छी हम
तोहर भयसँ थर-थर पहाड़ कँपइत अछि
नहि वायु बिना जल, अन्न, तखन जीवन की?
मन वायु-नियमनक आकांक्षा रखइत अछि
मेघक गर्जन हो वा सरिताक प्रतिध्वनि
गति ज्ञान, प्रगति विज्ञान वायुपर निर्भर
शत्रुक विरुद्ध युद्धक निमित्त प्रसवित भ’
बाँटेछ मरुदगण कल्याणक भावे बल
हे इन्द्र! क्रोध हो शान्त, तीक्ष्णतर स्मृति हो
जीवन हो वायु अन्न-जल-बल परिपूरित
नहि हो अकाल मृत्युक आशंका कखनो
दुःखक कारण मानवसँ हो अति दूरित
हे इन्द्र! सोम-रस पान करू, उल्लसित होउ
नहि उषा निशाकेर सृष्टि चक्र बाधित हो
गो पयस्विनी बनि जाय, आउ अश्विद्वय!
हो कर्म नियम स्थिर, इच्छा-स्वर साधित हो
कविगण! भू नभमे के पहिने जनमल अछि
ई सत्य ज्ञात हमरा, नहि चिन्ता कोनो
माँ-पिता जकाँ आश्रय द’ क’ मनुजक हित
ई देव तुल्य होयत, नहि शंका कोनो
अर्यमा, मित्र आ वरुण! बनू हितकारी
देवगण! भूमि नभ हित साधनमे लागे
हे अन्न! हानि नहि करू, स्वस्थ राखू हे!
हे अग्नि! देहमे रमू, यज्ञमे जागू
भारती! दिय’ यश; त्वष्टे! पशु-वर्द्धन हो
माया विमुक्ति वर देथि वृहस्पति हमरा
भागह दे विषमय जीवन जन्तु सूर्यक दिस
विष हरण, अमृत निस्सरण शक्ति छै’ जकरा
मोरनी, नकुल, औषध, जल! तो विषनाशक
जीवनमे अमृत भरह! भयमुक्त करह हे!
एक कम एक सय विष्ज्ञ शमनक विधि होइछ
से जानि गेल छी, सूर्य! प्रकाश भरह हे!
लोपा प्रसन्न पतिदेवक ऋतु दर्शनसँ
आश्वस्त देवमयि प्रकृतिक अनुकूलनसँ
पत्नीत्व मुदा ऋषिकाक नयनमे नाचल
संतोष न केवल पूजन वा अर्चनसँ
बाजलि कवयित्री: मंत्र दृष्टि हमरो अछि
जीवनमे सौन्दर्योक महत्त्व बहुत छै’
जँ अछि गृहस्थ जीवन तँ हे ऋषि पुंगव!
व्यर्थे यौवनके नष्ट करब न उचित छै’
सेवामे अहँक बितौलहुँ अछि नहि जानी
कतबा मदमत्त उषा वेला हम आधरि
वृद्धा भेने सौन्दर्य नष्ट भ’ जायत
पत्नी बनने की सुख? नहि संतति जाधरि
बूझल अछि देव सत्य रूपक दर्शनमे
अगणित ऋषि भेला क्षीणकाय आ असफल
यौवनक बिना जिनगीक मोल की? बाजू
बिनु काम-भाव कामना देत की प्रतिफल?
विद्याभ्यासी हो वा संयमी तपस्वी
यौवन पतिसँ पत्नी-संयोग मङै अछि
की पुत्र प्राप्ति कामाध्यात्मिक तप नहि अछि?
की नहि कखनो वयसोचित राग जगै’ अछि?
टूटल ऋषिवरक ध्यान-‘‘हँ सत्य कहै’ छी
अछि खुशी कि मांत्रिकताके अहूँ जनै’ छी
हे हमर ऋषिक ऋषिके! नहि व्यर्थ परिश्रम
अछि पूर्ण तपस्या; आउ, गृहस्थ बनै’ छी
अनुकूल देव छथि, ब्रह्मचर्य जागल अछि
अगणित साधन स्वायत्त बनौने छी हम
छी ओज-बीज परिपूर्ण न शत्रुक भय अछि
अछि मोन जे कि परिवार बसौने छी हम
भोगक सुख योग बिना रोगक कारण अछि
तप त्याग सूक्ष्मतम स्वार्थ कवच धारण अछि
वातावरणक नहि ज्ञान तखन जीवन की?
जे केवल सतोत्र पढ़ै’ अछि, ओ चारण अछि
ऋषि कर्म ज्ञान-विज्ञानक परिचय रखइछ
कवि वत्तमानके दैछ भविष्यक भाषा
कामस्फीतिक अतिशयता काव्य बनै’ अछि
अध्यात्म सत्य दै’ अछि शिवत्वमय आशा
लोपे! चिन्ता नहि करू, समाजक सुखमे
व्यक्तिक सुख अन्तर्निहित सदा रहलै’ अछि
ई आर्य भूमि अछि, सिन्धु समर्पण भावे
गंगा पवित्राकेर पर्याय बनै’ अछि
अध्यात्म हमर बांटत पुरुषार्थ चतुष्टय
विज्ञान धराके देत ऋचाणु शलाका
तर्पण पायब हम अहाँ कृतज्ञ भविष्यक
फहरत युग युगधारि मांत्रिकताक पताका
ध्वनि, काल, वायु आ ताप हमर इंगितिपर
धरतीसँ अन्तरिक्षधरि नाँचि रहल अछि
श्वासक शय्यापर वर्तमानमय कण-क्षण
उन्नत भविष्य गाथाके बाँचि रहल अछि
जीवनमे धर्मक बहुत मूल्य छै’ लोपे!
मानवके धार्मिक जीव कहब नहि अनुचित
दै’ अछि मनुष्यके धर्म असीम सबलता
ते धार्मिकता अछि मनु कुलमे अति प्रचलित
धर्माधारित मनुजक समाजमे सरिपहुँ
आन्तरिक एकता भाव उदार रहै’ अछि
अन्यथा पाशविकता जगैछ आ मानव
व्यक्तिगत स्वार्थमे फँसि क’ कटै-मरै’ अछि
आचरण शुद्ध रखबाक कार्य धर्मक छै,
धर्मे संस्कृति-सभ्यता दैत आयल अछि
विश्वमे प्रेम, माधुर्य शान्ति आ श्रद्धा
धार्मिकता टा सभठाँ बँटैत आयल अछि
धर्मक नियमन संयमित करै’ अछि मनके
दै’ अछि अधर्म भय नैतिकतामय दीक्षा
मानव कतबा उपकारी वा संयत अछि
-से तत्त्वज्ञानक लै’ अछि धर्म परीक्षा
प्रत्येक व्यक्तिमे धर्म-चेतना चाही
केवल संन्यासी नहि धर्मक अधिकारी
जे किछु शिवत्व आ सुन्दरत्व अछि जगमे
से दैछ, अतः अछि धर्म पैघ उपकारी
धर्मे विश्वास-नियम एवं नियमन अछि
ई वैज्ञानिक जिज्ञासासँ उपजै’ अछि
केवल मस्तिष्के नहि, हृदयो दै’ अछि ई
धार्मिकता मानवके विवेक वर द’ अछि
देहक तृष्णाके दृश्य जगत सूझै’ अछि
आत्माक तृषाके धर्मे मेटि सकै’ अछि
तादात्म्य बोध अतिशय अदृश्य सत्तासँ
करबैछ धर्म, से ऋत विज्ञान कहै’ अछि’’
बिहुँसलि लोपा; बाजलि: दे उपदेशक जी!
उपदेश धर्म निर्वाह करब कहियाधरि?
केवल विज्ञान ध्यानसँ वंश बढ़त की!
तनमे मन होयत समाधिस्थ कहियाधरि?
पुरुखाह दृष्टि ऋषिवरक पड़ल लोपापर
प्रश्नक व्यंजना भंगिमा सार्थक लगलनि
बिजुरीक दृष्टिसँ मेघ-नयन टकरायल
इंगितिसँ इंगितिके ऋषिवर किछु कहलनि
पवनक गतिमे किंचित परिवर्त्तन अयलै’
महमहा उठल वातावरणक शीतलता
मांत्रिक अध्यात्मक ठोस धरातलपर छल
पसरल पसरल दैहिक इच्छाक तरलता