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तैयारी मुकम्मल है / कौशल किशोर

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6 दिसम्बर को जो हुआ, जो हो रहा था
एक सरकार दिल्ली में हाथ बाँधे बैठी
देख रही थी टुकुर टुकुर
दूसरी शामिल थी उस यज्ञ में
अपनी आहुति डाल रही थी

विरोध मुट्ठी में बन्द पानी की तरह बह चुका था
कोई पूछने वाला नहीं था कि देश का संविधान कहाँ है?
उसकी जगह स्ट्रांग रुम के कक्ष मे
बस किताब में रहने की है?
फौज-फांटा, पुलिस-प्रशासन, अदालत-कचहरी किस दिन के लिए?
हैसियत क्या?

दिसम्बर की वह या अगस्त की यह
कैलेण्डर की क्या महज कुछ तारीखें हैं?

शोर में सन्नाटा
लाखों दीयों के जलने के बाद भी अंधेरा
रात काली, सावन-भादो में दिवाली
मौत नाच रही हो सिर पर
कैसा लगता है जश्न में डूबा देश?
महामारी नें जकड़ ली है गर्दन
मदारी नचा रहा है और नाच रहा है देश
नई संस्कृति के गोले दागे जा रहे हैं
यह जो छोड़ा गया है, वह रॉकेट नहीं रॉफेल है
अपने टारगेट की ओर

विरोधियों के लिए गढ़े गये हैं नये-नये शब्द
बुद्धिजीवी हैं तो बोलने का ठेका नहीं मिल गया आपको
संस्थानों में ठेकेदार नियुक्त हो चुके हैं
वे ही बतायेंगे क्या बोलना है, कैसे बोलना है, कितना बोलना है
और सबसे अच्छा तो यह है कि बोले ही नहीं
चुप रहना भी तो कला है

मंच सज चुका है
कलाकार मंच पर हैं
कोई पर्दादारी नहीं
दर्शक दीर्घा में भेड़-म-भीड़ है
आप भी शामिल हों, देखें
दीया जलायें, ताली-थाली बजायें
पसन्द नहीं तो एक्जिट का दरवाजा खुला है।