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तैयार रहो / इरेन्द्र बबुअवा
Kavita Kosh से
देश बदल रहा है
तैयार रहो
बदलने के लिए
रहन-सहन, खान-पान, अपना नाम
संस्कृति, सभ्यता, अपनी जाति, धर्म
अपने गाँव, शहर का पता
कि जाने कौन सी सुबह
देश बदल जाए, सोओ अपने देश में
और आँखें खुलें तो पाओ कि हो
किसी ऐसे नए देश में जहाँ प्रवासी
नागरिक जैसे हो
जहाँ लगेगा
कि अब जीना होगा डर-डर कर
उनके तौर-तरीक़े और इशारों पर, और जीना
सीख भी गए, तब भी महसूस तो करोगे ही न
कि पाँवों तले ज़मीन, ज़मीन
नहीं लग रही, और
आसमान भी आसमान
नहीं लग रहा...!