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तैर नदी में पार उतरना / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
तैर नदी में पार उतरना, मुझको अच्छा लगता है।
गीत सुनाना, प्यार भी करना, मुझको अच्छा लगता है।
ख़त लिखने में उनको मेरी कितने क़लमें टूट गयी,
कभी-कभी कुछ टूटते रहना, मुझको अच्छा लगता है।
जाड़ा भले निकल जाये, फिर भी जाड़ा आएगा,
उनको स्वेटर बुनते दिखना, मुझको अच्छा लगता है।
कितने ज़ख़्म मिले हैं अबतक, इसका कोई हिसाब नहीं,
नये ज़ख्मों का स्वागत करना, मुझको अच्छा लगता है।
अपने प्राण बचाने में है, जुगत लगाते सब कितने,
अपने प्राण को गिरवी रखना, मुझको अच्छा लगता है।
उनकी सूरत हाय क़यामत लगती सारी दुनिया में,
शामिल ग़ज़ल में उनको करना, मुझको अच्छा लगता है।
अंतिम बार मुझे उसने है, छोड़ा जिस चौराहे पर,
अब आगे ना पीछे हटना, मुझको अच्छा लगता है।