तोड़ना ही नहीं है सबकुछ / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ।
खेती के लिए मिल जाय जितनी ज़मीन
यहीं तक ठीक है
रेत की चिक-चिक
भाटा नहीं है।
देखो देखो, इस छोटे-से हरे-भरे आँगन में
ये बच्चे
घुटनों के बल दौड़ रहे हैं
चोट लगने पर रोते-बिसरते हैं
फिर गिर-गिरकर उठ खड़े होते हें।
अपनी नन्हीं-नन्हीं मुट्ठियों में कसकर थामे रखते हैं
हमारी आशाओं और हमारी खुशियों को-
हाथ खींच लेने पर वे थामकर दीवार
एक एक .... पाँव चलकर भरते हैं डग।
भूलकर भी उन्हें
मिट्टी में दबा न देना।
मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ
अब तक सूर्य के रंग से
रँगा नहीं जा सका आकाश।
यह रात, जिसके नाखून सड़-गल चुके हैं,
सिरहाने खड़ी है अब भी पंजे नचाती
क्या पता, अगर एक दो करती पंखुरियाँ ही खुलती जाएँ
पास ही रहो-
बाद में वे किसी पागल हाथी के पाँव-तले कुचलीं न जाएँ।
गुस्से में आँखें तरेरते-तरेरते
जो अब अन्धे हो चुके हैं
उनकी नाक के आगे
रख दो फूलों की थोड़ी-सी खुशबू।
मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ।
मौत चाहे जितनी भी बड़ी जान पड़े-
ज़िन्दगी के मुकाबले वह बड़ी और बेहतर नहीं होती।
जिसे नहीं आती रास
आदमी की बनायी यह दुनिया-
जो यह कहते रहे हें कि इस दुनिया में
सिर्फ़ एक ही रंग है
और वह भी सिर्फ़ खून का
भले ही उसे कई-कई नामों से पुकारा जाए
ऐसे अन्ध-भक्तों की चाहे जितनी बड़ी क्यों न हो क़तार
वह दम तोड़े कि न तोड़े
किसी नामवर कविराज को बुलाकर
जल्दी दिखाओ उसकी डूबती नाड़ी।
मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ।
इसे और भी जी-जान लगाकर
इससे भी कहीं ज़्यादा गाढ़े और ताजे़ रंग से उकेरो,
सारी दुनिया को जोड़कर
एक और बेहतर तस्वीर बनाओ
टाँगने के योग्य।
ऐसे एक समग्र जीवन को घर में ठौर मिले
जो कहीं से टूटा-फूटा न हो,
और पूरी तरह भरा-पूरा हो।