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तोड़ो कारा सघन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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भारतीय संस्कृति
मेरे प्राणों में रची-बसी है,
जिसके अंचल में,
सुरम्य संस्कार-लता विकसी है।
 समन्वयता भारती-संस्कृति
 विश्वबन्द्य पावन है,
 जहाँ विश्ववन्धुत्व
 अनवरत उन्नत मन भावन है।
अनाचार सहकर जो
जग को सदाचार देती है
अमरत धारा बाँट
गरल के घट खुद पी लेती है।
 देकर स्नेहिल अंक
 पुत्रवत सबको अपनाया है,
 आर्य-अनार्य सभी को
 जिसने हँसकर दुलराया है।
कभी सुविस्तृत कभी अल्पिका
पर गति प्रगतिमती है,
दुर्वाधर्मी जिजीविषा से
सतत समृद्धवती है।
 
 गंगा, यमुना, सरस्वती,
 सरयू, कावेरी, कृष्णा
 ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, सिन्धु,
 शिप्रा हरती मृगतृष्णा;
जिनका जीवन-जीवन के
हित में रत सदा रहा है,
करता हुआ समृद्ध-
लोक, आलोक समान बहा है।
 जिनका अंचल सदा
 त्याग-तप-तेज रहा देता है
 नहीं व्यष्टि का ही
 समष्टि का भी दुख हर लेता है;
जिनका कल-कल गान
ध्यान की गति में प्रगति कराता,
उर-अन्तर में उर्ध्वमुखी
चेतना अखण्ड जगाता।
 त्याज्य तमिस्र हृदय में
 अब तक क्यांकर डटा हुआ है?
 पूर्व-कर्म अभिनन्दन-
 अर्चन-वन्दन घटा हुआ है?
क्योंकर अनुसंधान
सृजन उत्कर्ष न अँखुआते है?
क्योंकर जीवन के मनोज्ञ
सेपान न सज पाते हैं?
 जिसने पश्चिम की धरती पर
 हर्षोल्लास लुटाये
 वही प्रगति-पूर्णिमा
 हमारे भी आँगन में आये।
किन्तु प्रगति हो सृजन-धर्मिणी
सेवा शान्ति मुदित हो,
तनम न धन के लिए
पतन का मार्ग न सम्वर्द्धित हो।
 वही प्रगति है प्रगति
 जहाँ नैतिक उत्थान सबल हो,
 मन पवित्र हो और
 हृदय का मन्दिर अति उज्ज्वल हो।
जगो ज्ञान धन! बरसो
युग की कटु कारा धो डालो,
होकर मुक्त कलंक, शुभ्र-
जीवन की ज्योति सजा लो।
 तोड़ दुख का वृत्त
 घोर दारिद्रय विसर्जित कर दो,
 नयी चेतना से
 धरती पर नवता सर्जित कर दो।
भरत वंश के लाल!
जगो फिर धरा पुकार रही है,
मनुज-धर्म पालन करने को
लगा गुहार रही है।
 जगो जगाओ निज पौरुष को
 सब दुख दाह मिटा दो,
 घोर प्रदूषण की
 धाराओं का अपवाह मिटा दो।
हो समृद्ध गणतन्त्र
प्रफुल्लित जन्मभूमि पावन हो,
विश्ववरेण्य आर्य-संस्कृति
का जग में अभिनन्दन हो।
 क्योंकर भूल गया तू
 अपने अतुलित बल-विक्रम को?
 लजा रहा क्यों दुग्ध जननि का
 क्यों अजेय निज श्रम को?
जागो उठो समय का स्वामी
तुमको टेर रहा है,
अमरत कलश धरे
निज सिर पर हर क्षण हेर रहा है।
 निज श्रम की अन्तः सलिला
 का फिर से ध्यान करो रे!
 बहा बांध-आलस्य
 जगत की उत्कट तृषा हरो रे!
एक बार अपने अखण्ड-
पौरुष की अलख जगा दो,
खण्ड-खण्ड हो चुकी प्रगति को
पुनः अखण्ड बना दो।
 रूढ़ि अन्धविश्वास त्याग
 आगत का स्वागत कर लो,
 नैतिक , आत्मिक, वैज्ञानिक
 उन्नति पथ पावन वर लो।
सतत गतिमती धार
प्रगति का पूर्ण प्रेम पाती है,
पग-पग पर नवीनता
हर्षित होकर दुलराती है,
 अगर थकित हो यही धार
 पथ में विराम लेती है
 तो जगती के साथ-साथ
 खुद को भी दुख देती है।
वर्तमान प्रतिक्षण
अतीत का ग्रास बना करता है,
काल काल में निर्झर-सा
चुपचाप झरा करता है।
 बीती हुई घड़ी
 वापस फिर कभी न मिल पाती है
 मुरझाये सुमनों पर जैसे
 कान्ति नहीं आती है।
क्योंकर सोये हो
धरती को स्वर्ग बनाने वाले?
जंगल में मंगल कर जाग्रत
मोद मनाने वाले।
 होकर स्वयं प्रकाश रूप
 क्यों ओढ़ी तम की चादर?
 सर्व समर्थ बने फिर भी
 क्यों दलित दुखों के आगर?
दिव्य ज्योति से पूर्ण समुन्नत
तेरा अन्तःपुर है।
देखो जगो प्रभात
तुम्हारे स्वागत को आतुर हैं।
 
अभिनन्दन के योग्य
 तुम्हारा गौरवपूर्ण विगत है
 जिसकी महिमा से
 धरती नभ दिग्दिगन्त अवगत है।
क्योंकर जीवन-ज्योति
समुज्ज्वल होकर मन्द पड़ी है?
शुभ्र सुसंस्कारों की क्यों
धूमिल मोतिया लड़ी है?
 युग के वीरों! जगो
 महावीरत्व जगाओ अपना,
 सुदृढ़ करो संकल्प
 व्यर्थ मत देखों कोरा सपना,
भरी हुई है युगल करों में
शक्ति अपार तुम्हारे,
तुमने ही समृद्ध जगती के
श्री सोपान सँवारे।
 रिक्त हस्त आकर
 पृथ्वी पर सर्जन अनन्त किये हैं
 नये-नये आयाम
 प्रगति के तू ने नित्य दिये हैं।
अरे शक्ति के महास्त्रोत!
तुम सब कुछ कर सकते हो,
सागर को कर पान
व्योम बाहों में भर सकते हो।
 यही कामना है धरती पर
 मनुज धर्म द्योतित हो,
 यत्र-तत्र-सर्वत्र समुन्नत
 शान्तिकुंज सज्जित हो।
सहज विश्वबन्धुत्व
धरा पर उन्नत और अमित हो,
सूत्र समन्वय का अखण्ड
यह कभी न फिर खण्डित हो।
 
यही स्वनाम धन्य संस्कृति
 जग में प्राचीन परम है,
 है समृद्ध सर्वांग सहज ही
 विश्व-ज्योति अनुपम है।
नित्य नया आलोक
लोक में इसने सदा भरा है,
सतत शान्ति सद्भाव
स्नेह से उन्नत वसुन्धरा है।
 अरे मनुज! तू धरती का
 श्रृंगार पुण्य अनुपम है
 सृष्टि-कोष का रत्न
 मनोहर तू अमूल्य निर्भ्रम है।
तुझमें ही करती निवास
वह शक्ति अखण्ड अतुल है,
उद्भव पालन प्रलय समन्वित
ज्योतित ज्योति विपुल है।
 तोड़ो कारा सघन
 व्यर्थ मन दुर्लभ दैन्य ग्रसित है,
 हृदय कुंज का ज्योति-पुंज
 देखो तो समुल्लसित है,
जागों उठो ज्योति पर्वों का
मिलकर वन्दन का लो,
खुले हृदय से
श्री मानवता का अभिनन्दन कर लो।