भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तोड़ धरा को ऊपर उठता है हाथ तुम्हारा / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
तोड़ धरा को ऊपर उठता है हाथ तुम्हारा
कहते हैं अंकुर फूटा है। प्रायः है पर्वत पर
फैल रही हैं शिशु किरणें। वृक्षों के वक्षस्थल पर
खिले दिखे हैं फूल अगिन के। साहस कब हारा
है मैंने। ययपि ऊपर मुरझाए पत्ते, पल्लव दल
लाल हुए हैं। हवा डुलाती भर अभिलाषा
मन में होने को अनुष्ठान जीवन का। आशा
का नभ खुला इखे आगे तक। होता राष्ट्र सबल
यदि जन के मन में - जगता संकल्प बड़ा। अवसान
नहीं है संध्या जीवन का। हुआ और समृद्ध जड़ों
से। गहरे जल का वाहक स्रोत हुआ है। बड़ों
को सब नवते हैं। तिनके पिचते हैं घमासान
में। होता है नाश अशिव का - अभिषेक करेगी
वाणी शिव का। जनशक्ति दमन का प्रतिषेध करेगी।