भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तोरा बिना जिनगी ललाय रहल छै / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तोरा बिना जिनगी ललाय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी कलटाय रहल छै।
रात-रात जागै छीयै
मटकी कहाँ मारै छीयै।
खोजी-खोजी हारै छीयै।
बैठी के पुकारै छीयै
दोनों गोड़ हाय राम! टटाय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी ललाय रहल छै।
ललकी किरनियाँ हे मारै छै तीर।
चुनमुन चिरैयाँ भी अर्जुन सम वीर।
दिन-दिन भर दिल में धसाय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी ललाय रहल छै।
भूख प्यास मरलोॅ छै।
किस्मत ही जरलोॅ छै।
तोरा रंग के पूछतै?
कामैह सेॅ भरलोॅ छैॅ।
पुरनकी पीरितिया तड़पाय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी ललाय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी कलटाय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी बौराय रहल छै।
तोरा बिना जिनगी पगलाय रहल छै।

05/11/15 सुप्रभागत साढ़े चार बजे