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तोहफ़ा / सुनील श्रीवास्तव

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सुनो दिलरुबा
तोहफ़े भरे पड़े हैं बाज़ार में
और कंगाल भी नहीं है
आशिक तुम्हारा

फिर भी
भटकते दिनभर
घूमते दुकान-दर-दुकान
सस्ती-महँगी चीजों के बीच से गुज़रते
मिठबोलिए दुकानदारों से मोल-तोल करते
तनिक भी रोमाँच
नहीं महसूस कर पाया
ख़ाली हाथ ही चला आया
हूँ, तुम्हारे जन्मदिन पर

फ़रेबी समय
कर सकता है खतरनाक व्याख्या
मेरे ख़ाली हाथ होने की
पर, ख़ाली हाथ नहीं हूँ मैं
मेरे साथ है यह विश्वास
कि प्रेम और पीड़ा
आज भी बिना माध्यम के
संचरित होती हैं एक हृदय से
दूसरे हृदय तक

यह विश्वास मैंने तुमसे ही पाया है
पिछले तीन वर्षों में
तुम्हे टूटकर प्यार करते हुए
तुम्हारे साथ चलते हुए ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर
ताज़ा गुड़ सी तुम्हारी हंसी में
धोते हुए अपना कसैलापन
तुम्हारे साथ हंसते रोते हुए
दौड़ लगाते हुए तुम्हारे
शरीर से आत्मा तक
मैंने यह जाना है
कि शुभकामनाएँ जंगल के फूल की तरह
स्वतः खिलती हैं
दिल की भीगी ज़मीन पर
और बाज़ार में जो बिकता है
ख़ूबसूरत पैकेटों में
उसमें बिल्कुल शामिल नहीं होती
उस जंगल के फूल की गन्ध

फिर भी गर रस्म निभानी ही है
तो लो ग्रहण करो ये शब्द मेरे
और बता दो सबको
कि यह सफ़ाई नहीं है मेरी
मेरा विद्रोह है
समय के प्रति ।