भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तो फिर आज ही क्यों नहीं / राजकुमार कुंभज
Kavita Kosh से
पक्षी ख़ामोश नहीं हैं
नदियाँ भी ख़ामोश नहीं हैं
यहाँ तक कि वृक्ष भी ख़ामोश नहीं हैं
और बहते पानी को सहतीं
चट्टानें भी बोलती रहती हैं निरन्तर
तो फिर मैं ही क्यों रहूँ ख़ामोश?
किसी न किसी दिन तो बोलना होगा
मछली को मगरमच्छ के ख़िलाफ़
तो फिर आज ही क्यों नहीं।