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तो फिर मैं क्या अगर अनफ़ास के / ज़फ़र गोरखपुरी

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तो फिर मैं क्या अगर अनफ़ास के सब तार गुम उस में
मेरे होने न होने के सभी आसार गुम उस में

मेरी आँखों में इक मौसम हमेशा सब्ज़ रहता है
ख़ुदा जाने हैं ऐसे कौन से अश्जार गुम उस में

हज़ारों साल चल कर भी अभी ख़ुद तक नहीं पहुँची
ये दुनिया काश हो जाए कभी इक बार गुम उस में

वो जैसा अब्र भेजे जो हवा सर पर चलाए वो
मेरे दरिया मेरे सहरा मेरे कोहसार गुम उस में

नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
वो मुझ में गुम है और मेरे दर ओ दीवार गुम उस में

‘ज़फ़र’ उस के थे हम तो कब तलक उस से अलग रहते
हुए हम एक दिन होना था आख़िर-कार गुम उस में