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तो हम रुकें / विजय वाते
Kavita Kosh से
दिन कहे ही बात अब, जो तुम कहो तो हम रुकें।
इक नई बाराखड़ी, जो तुम गढ़ो तो हम रूकें।
दंश शब्दों के बहुत ही लिजलिजे से हो गए,
प्राण इनमें तुम अगर, जो कुछ भरो तो हम रुकें।
बुत मुकाबिल हो तो फिर ये धर्म रक्षा व्यर्थ है,
राम की, रावण की गाथा फिर गुनो तो हम रुकें।
अब तो उठती ही नहीं, है हूक भी इस दर्द की,
दर्द का जो दर्द है, वो तुम बुनो तो हम रुकें।
यूँ तो हो जाती हैं अक्सर आँखे नम और सुर्ख भी,
जो नज़र निस्तब्ध है, उसको पढ़ो तो हम रुकें।