तो हर दिन ऐसा क्यों होता ! / जयप्रकाश त्रिपाठी
सचमुच मैं भी होता फकीर
तो हर दिन ऐसा क्यों होता !
घर आता-जाता क्यों हर दिन,
सामान जुटाता क्यों हर दिन,
कुछ खोता-पाता क्यों हर दिन,
करता, पछताता क्यों हर दिन,
अपना हर मोड़ स्वयं मुड़ता,
पँछी-सा खुला-खुला उड़ता,
सचमुच मैं भी होता फकीर...!
फिर क्यों इनसे-उनसे डरता,
क्षण-प्रतिक्षण क्यों तिल-तिल मरता,
करता जो भी, अच्छा करता,
हर आज़ादी का दम भरता,
सब जन-गण-मन अपना होता,
अन्धेरा नहीं घना होता,
सचमुच मैं भी होता फकीर....!
मन क्यों हँसता, मन क्यों रोता,
यश-अपयश होता, न होता
जैसी दिन की, वैसी रातें,
हर समय एक जैसी बातें,
जैसे अपना हर शहर-गाँव,
होता न कहीं कुछ भेद-भाव,
सचमुच मैं भी होता फकीर....!
क्षय की क्षय हो या जय की जय,
गतियों में लय या महाप्रलय,
मन निर्विकार, निर्लिप्त प्राण,
क्या त्राहिमाम्, क्या त्राण-त्राण,
करता अवनी का ओर-छोर,
मानो तृण-कण-कण को विभोर,
सचमुच मैं भी होता फकीर...!
चहुँओर रँग-सुर-जल-तरँग,
होती नद-सी अनहद उमँग,
नभ-सी निर्मल प्रत्येक दृष्टि,
हर लय में, गति में मधुर सृष्टि,
चर-अचर स्वयं निर्माता-सा
होता हर व्यक्ति विधाता-सा,
सचमुच मैं भी होता फकीर...!
क्या काल-देश, क्या राग-द्वेष,
क्या शेष और क्या-कुछ अशेष,
मानो समस्त में निलय-विलय,
सापेक्ष और निरपेक्ष समय,
प्राणी-प्राणी स्वयमेव लीन,
कोई न हीन, कोई मलीन,
सचमुच मैं भी होता फकीर....!